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संस्कार पर निबंध | Essay on Sanskar in hindi

संस्कार पर निबंध Essay on Sanskar in hindi : मानव जीवन में शिक्षा एवं संस्कारों का बड़ा महत्व माना गया हैं. मानव तथा पशु जीवन में यही मूलभूत अंतर हैं क्योंकि मनुष्य संस्कारों की परम्परा के मध्य अपना जीवन व्यतीत करता हैं.

वह सामाजिक बन्धनों को स्वीकार कर उनकी परिधि में कार्य करता हैं जबकि पशुओं के मामले में ऐसा कुछ नहीं हैं. आज के निबंध में हम जानेगे संस्कार क्या है (sacraments, Rite, Sanskar) इसका महत्व उपयोगिता पर निबंध स्पीच बता रहे हैं.

Essay on Sanskar in hindi

Essay on Sanskar in hindi

हमारे देश की महान संस्कृति की एक देन संस्कार भी है जिनका प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बड़ा महत्व हैं. एक तरह से संस्कार जीवन के आभूषण समझे गये है व्यक्ति का समाज में मूल्य तथा सम्मान बहुत बढ़ जाता हैं. साधारण शब्दों में संस्कार का हिंदी में अर्थ होता है संवारना.

जिस तरह हीरे एवं सोने का खनन के समय कई अवशिष्टों के साथ धूल, मिट्टी से सना होता है जब उसे अच्छी तरह साफ़ किया जाता है फिर उसे तरासने के बाद ही चमक मिलती हैं.

हीरे को तरासने के बाद उसकी महीन घिसाई की जाती हैं. उसके बाद ही वह पत्थर हीरा बनता है और हमारे लिए बहुमूल्य आभूषण तैयार किये जाते हैं.

हीरे की कीमत संस्कारों के बाद ही बढ़ती हैं. संस्कारों के बिना उसकी कोई कीमत नहीं रह जाती हैं. प्रकृति की छोटी से छोटी वस्तु से लेकर बड़ी से बड़ी चीज को उपयोग में लाने के लिए संस्कारों की आवश्यकता पड़ती हैं.

जिस अन्न से हमारी काया बनती हैं उसे खेत में बोने के बाद दाने निकालकर उसका प्रसंस्करण कर चक्की से आटा पीसने के बाद ही यह हमारे लिए रोटी बनाने योग्य बनता हैं, ये समस्त संस्कार के उदाहरण हैं.

एक बालक के मन पर बड़ों द्वारा किये प्रत्येक कर्म एवं बात का गहरा असर होता हैं. बालक जो कुछ देखता, सुनता हैं उसे शिक्षा मिलती है वे ही उसके संस्कार बन जाते हैं. जीवन के आरम्भिक दिनों में जिन संस्कारों की नीव डाली जाती है उसका जीवन उसी अनुरूप बन जाता हैं.

हमने इतिहास में ऐसे कई विलक्षण उदाहरणों को देखा है जिन्होंने जीवन की शुरुआत में ही माँ बाप अथवा अपने गुरुजनों के व्यवहार, आचरण से प्रभावित होकर संस्कारवान बनकर अपना नाम बनाया हैं.

वीर भरत माता शंकुलता के कारण ही महान वीर बन सका जो आगे जाकर महान सम्राट बने और हमारे देश का नाम भी उन्ही के नाम पर पड़ा था. जीजाबाई के कारण ही शिवाजी जैसे देशभक्त हुए.

ध्रुव अपनी माताजी के संस्कार उन्ही की प्रेरणा के चलते अमर हुए. महाभारत के महान यौद्धा अभिमन्यु के जीवन पर उनके माता पिता के आदर्श संस्कारों का बड़ा असर रहा जिसके चलते उन्हें महान यौद्धाओं में गिना जाता हैं.

संस्कार परम्परा के कारण मानव में दैवीय गुण उत्पन्न हो जाते हैं, अब तक जितने भी संत महात्मा बने हैं उनके जीवन निर्माण संस्कार के ही परिणाम हैं.

आदरणीय स्वामी विवेकानंद का जीवन संस्कार से चरित्र निर्माण का बेहतरीन अनुभव हैं. व्यक्ति में जितने अधिक अच्छे संस्कार हो उनका चरित्र उतना ही अच्छा बन जाता हैं. जिस व्यक्ति में बुरे संस्कारों की प्रबलता अधिक होती हैं उसका चरित्र हीन बन जाता हैं.

कोई इन्सान अच्छे विचार रखे, सत्कर्म करे तो उसके विचारों एवं सत्कार्यों से आने वाली पुश्ते संस्कारित होगी और यह युवा पीढ़ी में बढ़ते बुरे संस्कारों को रोकने में प्रभावी हो सकता हैं.

संस्कारों और जीवन के सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द के विचार महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने कहा था संस्कार जीवन के अस्तित्व के साथ आरंभ होते हैं. मानव को सही पथ पर अग्रसर होने में संस्कार की अहम भूमिका हैं.

अतः श्रेष्ठ संस्कार को अपनाने वाले मनुष्य में दैवीय गुणों का जन्म होता हैं. हरेक व्यक्ति को संस्कारवान बनना आज के समय की महत्ती आवश्यकता हैं.

सनातन के सोलह संस्कार कौन कौनसे हैं जानिये Sanskar In Hindi

हिन्दू धर्म अर्थात सनातन सदियों से चला आ रहा प्रसिद्ध धर्म हैं, प्रत्येक सनातनी के लिए इन संस्कारो का महत्वपूर्ण स्थान हैं. हिन्दू मान्यताओं के अनुसार जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल 16 संस्कार  माने गये हैं  जिनमे से कुछ बच्चे के जन्म से पूर्व  ही किये जाते हैं 

संस्कार शब्द का मूल अर्थ है, ‘शुद्धीकरण’ यानि वे कृत्य जिनसे एक बालक को समुदाय का योग्य सदस्य बनाने के लिए शरीर, मन और मस्तिष्क से पवित्र किया जाए. इन संस्कारों से जन्म से ही बच्चें में अभीष्ट गुणों को विकसित किया जा सके.

Hindu Dharma Ke Solah (16) Sanskar

संस्कारों का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम वृहदारणयकोपनिषद से प्राप्त होता हैं. इनकी संख्या 16 हैं जो निम्न हैं.

  • गर्भधान संस्कार – यह पुरुष द्वारा स्त्री में अपना वीर्य स्थापित करने की क्रिया
  • पुंसवन संस्कार – स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे, चौथे अथवा आठवें माह में पुत्र प्राप्ति की इच्छा हेतु सम्पन्न संस्कार
  • सीमान्तोन्नय संस्कार – यह संस्कार स्त्री के गर्भ की रक्षा के लिए गर्भ के चौथे अथवा पांचवे माह में किया जाता हैं. इस प्रकार ये तीन संस्कार शिशु के जन्म से पूर्व किये जाते हैं.
  • जातकर्म संस्कार – शिशु के जन्म के उपरान्त यह संस्कार किया जाता हैं. इस संस्कार के समय पिता नवजात शिशु को अपनी अंगुली से मधु या घृत चटाता था तथा उसके कान में मेघाजनन का मन्त्र पढ़ उसे आशीर्वाद देता था.
  • नामकरण संस्कार- यह संस्कार नवजात शिशु के नाम रखने हेतु किया जाता था.
  • निष्क्रमण संस्कार – नवजात शिशु को घर से बाहर निकालने व सूर्य के दर्शन करने के अवसर पर किये जाने वाला संस्कार. इस संस्कार को शिशु के जन्म के 12 वें दिन से चौथे मॉस के मध्य कभी भी किया जा सकता हैं.
  • अन्नप्राशन संस्कार – शिशु के जन्म के ६ वें मास में शिशु को ठोस अन्न खिलाने का संस्कार.
  • चूड़ाकर्म – इस संस्कार को मुंडन अथवा चौल संस्कार के नाम से भी जाना जाता हैं. इस संस्कार के अवसर पर शिशु के सिर के सम्पूर्ण बाल मुंडवा दिए जाते हैं. सिर पर मात्र शिखा अर्थात चोटी रहती हैं.
  • कर्णवेध संस्कार – यह संस्कार रोगादि से बचने और आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता हैं.
  • विद्यारम्भ संस्कार – यह संस्कार बालक के जन्म के 5 वें वर्ष में सम्पन्न किया जाता हैं. इस संस्कार के अंतर्गत बालक को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता हैं.
  • उपनयन संस्कार- बालक के शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाने पर यह संस्कार किया जाता था. इस संस्कार के अवसर पर बालक को यज्ञोपवीत धारण के ब्रह्माचर्य आश्रम में प्रविष्ठ कराया जाता था.
  • वेदारम्भ संस्कार – इस संस्कार में गुरु विद्यार्थी को वेदों की शिक्षा देना प्रारम्भ करता था.
  • केशांत अथवा गौदान संस्कार – यह बालक के 16 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर किया जाने वाला संस्कार हैं. इस अवसर पर बालक की प्रथम बार दाड़ी मुछों को मुंडा जाता था. यह संस्कार बालक के वयस्क होने का सूचक हैं.
  • समावर्तन संस्कार – जब बालक विद्याध्यन पूर्ण कर गुरु को उचित गुरु दक्षिणा देकर गुरुकुल से अपने घर को वापस लौटता था, तब इस संस्कार का सम्पादन किया जाता था. यह संस्कार बालक के ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक हैं.
  • विवाह संस्कार – इस संस्कार के साथ ही मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता हैं.
  • अंत्येष्टि संस्कार – यह मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार हैं जो व्यक्ति के निधन के पश्चात सम्पन्न किया जाता हैं.

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हिन्दू धर्म के पवित्र सोलह संस्कार

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16 Sanskar | हिन्दू धर्म के पवित्र सोलह संस्कार | solah sanskar

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essay on sanskar in hindi language

सोलह संस्कार – हिन्दू धर्म के 16 दिव्य संस्कार

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सोलह संस्कार – 16 Sanskar

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों (16 Sanskar) पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों (Solah Sanskar) का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों (16 Sanskar in Hindi) का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है। प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी।

जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है।

सनातन परम्परा के 16 दिव्य संस्कार : Hindu Dharm Ke 16 Sanskar

  • गर्भाधान संस्कार
  • पुंसवन संस्कार
  • सीमन्तोन्नयन संस्कार
  • जातकर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्क्रमण संस्कार
  • अन्नप्राशन संस्कार
  • मुंडन/चूडाकर्म संस्कार
  • विद्यारंभ संस्कार
  • कर्णवेध संस्कार
  • यज्ञोपवीत संस्कार
  • वेदारम्भ संस्कार
  • केशान्त संस्कार
  • समावर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार

1. गर्भाधान संस्कार :

हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।विवाह उपरांत की जाने वाली विभिन्न पूजा और क्रियायें इसी का हिस्सा हैं|

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2. पुंसवन संस्कार : 

गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है । वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए ।

क्रिया और भावना :

गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ । मन्त्र बोला जाए । मंत्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए ।वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे । भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है । गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है ।

ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यङ्गानि यजूषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥

3. सीमन्तोन्नयन :

सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।

4. जातकर्म :

नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।

5. नामकरण संस्कार :

नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है । यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता । अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है । इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँुचाने का सत्प्रयास किया जाता है । जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है । नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए ।

शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए|भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है । ‘दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।’ इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है । ‘जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं ।’ इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए । यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है ।

भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है । आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं । उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है । यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके । तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।

6. निष्क्रमण् :

निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।

7. अन्नप्राशन संस्कार :

बालक को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है । इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है । बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है । तदनुसार अन्नप्राशन ६ माह की आयु के आस-पास कराया जाता है । अन्न का शरीर से गहरा सम्बन्ध है । मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार व्यवस्था में जाता है । उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर लेने का प्रयास करना उचित है । अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है । अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता ।

अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है । हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं । भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं । होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है । नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं । तब उसे खाने का अधिकार मिलता है । किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है । त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है । भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है…

8. मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार:

इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए

महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं । इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही ।हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए ही यह संस्कार किया जाता है…

9. विद्यारंभ संस्कार:

जब बालक/ बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है । इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें ।

10. कर्णवेध संस्कार:

हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।

11. यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार:

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है:

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

12. वेदारम्भ संस्कार:

ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

13. केशान्त संस्कार:

गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।

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14. समावर्तन संस्कार :

गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।

15.विवाह संस्कार:

हिन्दू धर्म में; सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है । भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है । इसलिए कहा गया है … ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’ … सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग देते रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्क है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।

16. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार:

हिंदूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।

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16 संस्कार के नाम और उनका महत्व | 16 Sanskar In Hindi

जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होता है, उस क्रिया को संस्कार कहते हैं। पुराणों में भी विविध संस्कारों का उल्लेख है पर उनमें मुख्य तथा आवश्यक 16 संस्कार माने गए हैं।

इनमें से कुछ संस्कार जन्म के पहले और कुछ जन्म के बाद युवावस्था तक किये जाते हैं।

संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारम्भ से ही कुछ मतभेद रहा है। गौतम स्मृति में 48 संस्कार बताये गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार निर्दिष्ट किये हैं। महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है।

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जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व है। वे मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के द्योतक हैं। संस्कार के कारण मनुष्य को योग्य एवं उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

जब तक किसी पदार्थ का संस्कार नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन रहता है।

जिस प्रकार खान से निकला हुआ सोना अत्यन्त मलिन होता है, आग में तपाकर उसे शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की शास्त्रीय व्यवस्था दी है।

आचार विचार और संस्कार का पारस्परिक सम्बन्ध है, इसीलिए सनातन हिन्दू संस्कृति में संस्कारों पर विशेष बल दिया गया है।

महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित प्रमुख सोलह संस्कार इस प्रकार हैं।

Table of Contents

16 संस्कारों के नाम : लिस्ट

1. 9.
2. 10.
3. 11.
4. 12.
5. 13.
6. 14.
7. 15.
8. 16.
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥ कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः। व्यासस्मृति 1 | 13 | 15

आइये संक्षेप में जानते हैं इन 16 संस्कारों का मतलब और इनका महत्व।

गर्भाधान संस्कार

विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश होता है। यही गर्भाधान संस्कार का फल है।

गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की मानसिक अवस्था जैसी होती है अथवा जैसा उनका भाव होता है, वे भाव संतान में भी प्रकट होते हैं।

अतः शुभ मुहूर्त में पवित्र होकर शुभ मन्त्रों से प्रार्थना करके ही गर्भाधान करना चाहिए।

पुंसवन संस्कार

पुत्र की प्राप्ति के लिये शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान है। पुम् नामक नरक से जो रक्षा करता है, उसे पुत्र कहा जाता है।

इस वचन के आधार पर नरक से बचने के लिये लोग पुत्र प्राप्ति की कामना करते हैं।

मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान मिलता है। जब गर्भ दो-तीन महीने का होता है तभी इस संस्कार को किया जाता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार

गर्भ के छठे या आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है।

सामान्यतः गर्भ में चार मास के बाद बालक के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि प्रकट हो जाते हैं। हृदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है इसलिए उसमें इक्षाओं का उदय होने लगता है।

गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतनाशक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

इस समय गर्भ शिक्षण योग्य होता है। महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था।

अतः माता-पिता को चाहिए कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें।

जातकर्म संस्कार

इस संस्कार से गर्भस्राव जन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है। बालक का जन्म होते ही यह संस्कार करने का विधान है।

इसमें बालक को सोने के चम्मच से असमान मात्रा में मधु तथा घी चटाया जाता है। इसमें सोना त्रिदोषनाशक है। घी आयुवर्धक तथा वात-पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है।

इन तीनों का सम्मिश्रण आयु, लावण्य और मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला होता है।

इस संस्कार में माँ के स्तनों को धोकर दूध पिलाने का विधान किया गया है। माँ के रक्त और मांस से उत्पन्न बालक के लिये माँ का दूध ही सर्वाधिक पोषक पदार्थ है।

नामकरण संस्कार

इस संस्कार का फल आयु तथा तेज की वृद्धि एवं लौकिक व्यवहार की सिद्धि बताया गया है।

जन्म से ग्यारहवें दिन या सौवें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण संस्कार करने का विधान है।

पुरुष और स्त्रियों का नाम किस प्रकार का रखा जाये, इसके बारे में पुराणों में उल्लेख है।

निष्क्रमण संस्कार

इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है। यह संस्कार बालक के चौथे या छठे मास में होता है।

सूर्य तथा चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है।

बालक का पिता इस संस्कार के अन्तर्गत आकाश आदि पञ्चभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बालक के कल्याण की कामना करता है।

अन्नप्राशन संस्कार

इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण जन्य जो दोष बालक में आ जाते हैं, उनका नाश हो जाता है।

जब बालक 6-7 मास का होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है।

शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चाँदी के चम्मच से बालक को खीर आदि पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः॥ अर्थ – हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा नाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं। अथर्ववेद 8 | 2 | 18

चूड़ाकरण संस्कार

इसका फल बल, आयु तथा तेज की वृद्धि करना है। इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार करने का विधान है।

मस्तक के भीतर ऊपर की ओर जहाँ पर बालों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है।

उस स्थान को ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है, इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखने का विधान किया है।

शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराना चाहिए। इसके बाद सिर में दही-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिए।

नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ अर्थ – हे बालक ! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्न के ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिये, ऐश्वर्य वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिये तेरा चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ। यजुर्वेद 3 | 63

कर्णवेध संस्कार

पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिये यह संस्कार किया जाता है।

इस संस्कार को छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार संपन्न करना चाहिये।

ब्राह्मण और वैश्य का रजत शलाका (सूई) से, क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका द्वारा कान छेदने का विधान है पर वैभवशाली पुरुषों को स्वर्ण शलाका से ही यह क्रिया सम्पन्न करानी चाहिये।

बालक के प्रथम दाहिने कान में फिर बायें कान में सूई से छेद करे। बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कान के वेध के साथ बायीं नासिका के वेध का भी विधान मिलता है।

बालकों को कुण्डल आदि तथा बालिका को कर्णाभूषण आदि पहनाने चाहिये।

उपनयन संस्कार

इस संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती है। शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँ तक कहा गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है।

विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है। इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यन्तिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री जप आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है।

वेदारम्भ संस्कार

उपनयन हो जाने पर बालक का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता है। ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान है।

इस क्रिया से बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदि में विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता।

गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्चात वेदारम्भ (विद्यारम्भ) में प्रविष्ट होने का विधान है।

तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का प्रयोजन है। यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम संस्कार है।

केशान्त संस्कार

वेदारम्भ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश-दाढ़ी, मुंज, मेखला आदि धारण करने का विधान है।

जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त संस्कार सम्पन्न होता है।

इस संस्कार में भी आरम्भ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर यज्ञादि के सभी अङ्गभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है।

इसके बाद दाढ़ी बनाने की क्रिया सम्पन्न की जाती है। यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः 16 वर्ष में होता है।

समावर्तन संस्कार

समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है, मतलब लौटता है।

इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन संस्कार का फल है।

वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिए यह वेदस्नान संस्कार भी कहलाता है।

उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥ अर्थ – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्व भाग के मूँज, उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें। ऋग्वेद 1 | 25 | 21

विवाह संस्कार

पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। विवाह का यही फल बताया गया है।

विवाह संस्कार का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारी होकर विवाह करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं प्रदान की है।

इसके लिये कुछ नियम और विधान बने हैं, जिससे उनकी स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण होता है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि को साक्षी बनाकर करने का विधान है।

भारतीय संस्कृति में यह दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर तक माना गया है।

विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार

विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ नामक अग्नि कहलाती है। इसी को विवाहाग्नि भी कहा जाता है।

उस अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती हैं।

विवाह के बाद जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिए।

यह नित्य हवन विधि द्विजाति के लिये आवश्यक बताई गयी है। सभी वैश्वदेवादि स्मार्त कर्म तथा पाक यज्ञ इसी अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं।

त्रेताग्नि संग्रह संस्कार

विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार के परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं।

उस स्थापित अग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियों ( दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय ) की स्थापना तथा उनकी रक्षा का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है।

ये तीन अग्नियाँ त्रेताग्नि कहलाती हैं, जिसमें श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं।

भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर सीता जी के साथ पुष्पक विमान से वापस लौट रहे थे,

तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताया कि यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है,

जहाँ के त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धुएँ को सूँघकर मैं अपने को सभी पाप-तापों से मुक्त अनुभव कर रहा हूँ।

कुछ आचार्यों ने उपरोक्त 16 संस्कारों के अतिरिक्त अन्त्येष्टि क्रिया को भी एक संस्कार माना है, जिसे पितृमेध, अन्त्यकर्म, अन्त्येष्टि आदि नामों से भी जाना जाता है।

इस संस्कार में मुख्यतः दाहक्रिया से लेकर द्वादशा तक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि वेदों में संस्कारों को यज्ञों के रूप में निरूपित किया गया है।

महर्षि अंगिरा का कथन है कि जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित प्रयोग करने पर चित्र में सुंदरता एवं वास्तविकता आ जाती है, ठीक उसी प्रकार चरित्र निर्माण भी विविध संस्कारों के द्वारा प्राप्त होता है।

आपके प्रश्न

जन्म से पहले के तीन संस्कार होते हैं, उनके नाम हैं, 1) गर्भाधान 2) पुंसवन 3) सीमन्तोन्नयन

संस्कारों की संख्या में विद्वानों में प्रारम्भ से ही कुछ मतभेद रहा है। गौतम स्मृति में 48 संस्कार बताये गए हैं। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार निर्दिष्ट किये हैं जबकि महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है।

जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होता है, उस क्रिया को संस्कार कहते हैं। जब तक किसी पदार्थ का संस्कार (शुद्धिकरण) नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन ही रहता है। जिस प्रकार खान से निकला हुआ सोना तपाने से ही शुद्ध होता है उसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की शास्त्रीय व्यवस्था दी है।

भारतीय संस्कृति में मुख्यतः सोलह (षोडश) संस्कार माने गये हैं।

शैशव संस्कारों की कुल संख्या छः (6) है। इनके नाम हैं, 1) जातकर्म 2) नामकरण 3) निष्क्रमण 4) अन्नप्राशन 5) चूड़ाकरण 6) कर्णवेध

महर्षि व्यास के द्वारा बताये गए 16 संस्कारों में से दो इसके अन्तर्गत आते हैं, जो गृहस्थ जीवन के लिये आवश्यक है। उनके नाम हैं – 1) विवाह 2) विवाहाग्नि परिग्रह

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Hindi Essay on "Sanskar", "संस्कार पर निबंध" For Students

Essay on Sanskar in Hindi : इस लेख में पढ़िए संस्कार पर निबंध , संस्कार का तात्पर्य शुद्धिकरण की प्रक्रिया से है। मुख्य संस्कारों की संख्या 14 ही बताय

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संस्कार पर निबंध.

संस्कार पर निबंध : संस्कार का तात्पर्य शुद्धिकरण की प्रक्रिया से है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने, उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास एवं उसकी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को समाजोपयोगी बनाने के लिये व्यक्ति का शारीरिक मानसिक एवं नैतिक परिष्कार आवश्यक माना गया है। परिष्कार अथवा शुद्धिकरण की पद्धति को ही यहाँ संस्कार की संज्ञा दी गयी है। जीवन को परिष्कृत की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है। यद्यपि यहाँ संस्कारों की संख्या काफी बतायी गयी है, परन्तु मुख्य संस्कारों की संख्या 14 ही बतायी गयी है। इन संस्कारों का उद्देश्य एक विशेष स्थिति तथा आयु में व्यक्ति को उसके सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान कराना है। 

संस्कार पर निबंध

सामान्य रूप में संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति से जोड़ा जाता है। लेकिन संस्कार का सम्बन्ध सिर्फ व्यक्ति से ही नहीं है, वरन् परिवार, समाज और राष्ट्र सभी से जुड़ा है। क्योंकि व्यक्ति तो आता-जाता है, लेकिन संस्कार की अविरल धारा परिवार, समाज और राष्ट्र में चलती ही रहती है। हां इतना जरूर है कि संस्कार का वाहक मनुष्य ही है। क्योंकि इसी का मनुष्य या व्यक्ति से मिलकर परिवार, समाज और राष्ट्र बनता है। और संस्कार भी इसी मनुष्य अथवा व्यक्ति के माध्यान से यात्रा करता है। यह सच है।

जैसे मनुष्य स्नान के बाद तरोताजा हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संस्कार के बाद मनुष्य तथा मनुष्य के माध्यम से समाज भी तरोताजा होता है। जिस प्रकार मनुष्य को कुछ अवधि के बाद स्नान की जरूरत होती है, लेकिन एक बार स्नान से काम नहीं चलता वरन् बार-बार स्नान जरूरी होता है। ठंडा मौसम है तो एक दिन बाद स्नान की जरूरत पड़ेगी। लेकिन गर्मी में तो स्नान भी आवश्यकता कुछ घंटों के बाद ही होती है। यही भूमिका मनुष्य के जीवन में संस्कारों की है।

हिन्दू सनातन परम्परा में मुख्यतः सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है। इन संस्कारों की परम्परा जन्म से मृत्यु पर्यन्त जीवन में चलती रहती है। 16 संस्कारों की व्यवस्था हिन्दू/सनातन समाज का भाग है। इन संस्कारों को हम जीवन का भाग मानते हैं। संस्कारों का प्रभाव कहां पड़ता है? यह मुख्य समस्या अथवा विचार विन्दु है। संस्कारों का प्रभाव व्यक्ति के शरीर की अपेक्षा मन पर पड़ता है। इसी कारण संस्कार का कार्य मुख्यतः चित्त का परिष्कार अथवा चित्त की शुद्धि से जुड़ा है। उसी रूप में उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं चित्त से है।

अब एक प्रश्न यह भी उठता है कि जिन समाजों में संस्कार निश्चित नहीं हैं, वहां चित्त का परिष्कार किस प्रकार होता है? इस प्रश्न का उत्तर सहज एवं स्वाभाविक है। जैसे संस्थागत अथवा नियमित श्रेणी का विद्यार्थी प्रतिदिन कक्षा में आध्ययन करे परीक्षा में सफल होता है। किन्तु उसी कक्षा में प्राइवेट अथवा व्यक्तिगत रूप से परीक्षा देने वाला विद्यार्थी भी परीक्षा उत्तीर्ण करता है। दोनों को एक ही उपाधि मिलती है। अपने परिश्रम के बल पर परीक्षा पास करने वाले को श्रेष्ठ होना चाहिए क्योंकि बिना कक्षा के परीक्षा पास किया, लेकिन ऐसा नहीं होता। क्योंकि कक्षा में पढ़ाई करने वाले ने व्यवस्थित पढ़ाई किया साथ ही अपने परिश्रम के साथ-साथ शिक्षक का बोध एवं संस्कार प्राप्त किया। इसी कारण प्राइवेट विद्यार्थी से संस्थागत विद्यार्थी श्रेष्ठ हो गया। ठीक उसी प्रकार जिस समाज में निश्चित संस्कार नहीं हैं वहां समाज की रूढ़िया एवं परम्पराएं संस्कार के रूप में रहती हैं। 

दुनिया के प्रत्येक समाज में जन्म, विवाह एवं मृत्यु के समय उत्सव या समारोह की परम्परा है। इन में से सनातन/ हिन्दू समाज जीवन के प्रमुख पड़ावों अथवा चरणों पर उत्सव के साथ-साथ पूजा-उपासना आदि को अपनाने के कारण संस्कारों की भूमिका विशेष हो जाती है। इस प्रकार संस्कार जीवन का एक भाग है। संस्कारों का प्रभाव मनुष्य के अलावा पशुओं पर भी पड़ता है। अच्छे संस्कार के कारण तोता भी राम-राम बोलता है। हां यह ठीक है कि पशुओं पर संस्कार अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहते। संस्कार और समाज के सम्बन्ध में चित्त की भूमिका महत्वपूर्ण है। 

सोलह संस्कार : समाज और समय के बदलाव के साथ संस्कारों की भी गति एवं प्रकिया बदलती है। इस बदलाव में नाम, रूप, व्यवहार आदि बदल जाते हैं। हम देख सकते हैं कि सनातन रूप से चले आ रहे सोलह संस्कारों में भी बदलाव आया है। इस बदलावों पर चर्चा से पहले हम सोलह संस्कारों की चर्चा अधिक जरूरी समझते हैं। संस्कारों की परम्परा शिशु के गर्भ में आगमन से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। महर्षि व्यास द्वारा वर्णित संस्कारों में वर्णित 16 संस्कार इस प्रकार है:- (1) गर्भाधान प्रमुख संस्कार है इसके पश्चात्, (2) पुंसवन, (3) सीमान्तोन्नयन, (4) जात कर्म, (5) नामकरण, (6) निष्क्रमण, (7) अन्नप्राशन, (8) मुंडन, (७) कर्णबंध, (10) यज्ञोपवीत, (11) वेदारम्भ, (12) केशान्त, (13) समावर्तन, (14) विवाह, (15) विवाहग्नि एवं (16) अन्त्येष्ठि/श्राद्ध उक्त 16 संस्कार कभी सनातन समाज के बाध्यकारी भाग थे। समय के साथ-साथ इनकी बाध्यता समाप्त हुई। वर्तमान में संस्कारों की स्थिति इस प्रकार हैं - गर्भाधान एक संस्कार और श्रेष्ठ संतानों के आह्वान का आधार न बन कर वर्तमान में मात्र स्त्री-पुरुष संयोग किया का अंग बन गया। इसी के साथ-साथ पुंसवन एवं सीमान्तोन्नयन की भी परम्परा मिटी। जातकर्म और नामकरण संस्कार के रूप में नहीं रहकर जीवन व्यवहार अथवा सामाजिक व्यवहार के भाग बने। यही दशा निष्कमण और अन्नप्राशन की रही। माँ का दूध भले ही न मिले पर पौष्टिक शिशु आहार के माध्यम से अन्न भोजन चल पड़ा। मुंडन का संस्कार तो अभी अधिकतर भागों में प्रचलन में है। लेखन लिपि पापा ने जब मन आया तभी पढ़ाना शुरू किया, क्योंकि अब विद्यालय में प्रवेश के लिए विद्यालय से पहले की शिक्षक जरूरी हो गयी है। कर्णबेध प्रायः स्त्री व्यवहार से जुड़ गया। यज्ञोपवीत संस्कार अलग से करने के स्थान पर यह विवाह से पूर्व का एक कर्मकाण्ड हो गया। वेदारम्भ सिर्फ वैदिकों का कार्य है। केशान्त की परम्परा लुप्त हो गयी। समावर्तन संस्कार अब डिग्री देने के दीक्षान्त हो गये। अभी विवाह संस्कार की परम्परा जारी है। खर्चीले विवाह के प्रचलन के बीच विवाह संस्कार नहीं होकर यह प्रतिष्ठा और दिखावा बन गया है। ऐसा ही सामाजिक व्यवहार अन्त्येष्ठि/श्राद्ध के साथ भी अधिकतर हो रहा है। श्राद्ध के साथ घटती श्रद्धा और बढ़ता आडम्बर और औपचारिकता, बदलाव का सूचक है। इस प्रकार हम यदि वर्तमान के सामाजिक व्यवहार तथा संस्कारों को एक साथ देखें तो स्पष्ट है कि कुछ संस्कार प्रचलन से बाहर हुए हैं तथा कुछ का स्वरूप बदला है। इस प्रकार संस्कारों का समय के साथ बदलाव जारी है।

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संस्कार पर निबंध | Essay on Samskaras: Meaning and Objectives

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संस्कार पर निबंध | Essay on Samskaras: Meaning and Objectives:- 1. संस्कार का अर्थ (Meaning of Sacraments) 2. संस्कारों का उद्देश्य (Purpose of Sacraments) 3. नैतिक उद्देश्य (Moral Objectives) 4. विधि (Method).

संस्कार का अर्थ (Meaning of Sacraments):

‘संस्कार’ शब्द सम् उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु में घञ प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता । इस प्रकार हिन्दू व्यवस्था में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के लिये उपयुक्त वन सके ।

शबर का विचार है कि संस्कार वह क्रिया है जिसके सम्पन्न होने पर कोई वस्तु किसी उद्देश्य के योग्य बनती है । शुद्धता, पवित्रता, धार्मिकता, एवं आस्तिकता संस्कार की प्रमुख विशेषतायें हैं । ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किन्तु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है ।

इनसे उसमें अन्तर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है । संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का भी निवारण करते तथा उसकी प्रगति के मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं । इसके माध्यम से मनुष्य आध्यात्मिक विकास भी करता है ।

मनु के अनुसार संस्कार शरीर को विशुद्ध करके उसे आत्मा का उपयुक्त स्थल बनाते हैं । इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व की सर्वांगीण उन्नति के लिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विधान प्रस्तुत किया गया है ।

‘संस्कार’ शब्द का उल्लेख वैदिक तथा ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता । मीमांसक इसका प्रयोग यज्ञीय सामग्रियों को शुद्ध करने के अर्थ में करते हैं । वास्तविक रूप में संस्कारों का विधान हम सूत्र-साहित्य विशेषतया गृह्यसूत्रों में पाते हैं । संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त सम्पन्न किये जाते थे ।

अधिकांश गृह्यसूत्रों में अन्त्येष्टि का उल्लेख नहीं मिलता । स्तुति ग्रन्थों में संस्कारों का विवरण प्राप्त होता है । इनकी संख्या चालीस तथा गौतम धर्मसूत्र में अड़तालीस मिलती है । मनु ने गर्भाधान से मृत्यु-पर्यन्त तेरह संस्कारों का उल्लेख किया है । बाद की स्मृतियों में इनकी संख्या सोलह स्वीकार की गयी । आज यही सर्वप्रचलित है ।

संस्कारों का उद्देश्य (Purpose of Sacraments):

हिन्दू समाज-शास्त्रियों ने संस्कारों का विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया ।

मुख्यतः हम इन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं:

ADVERTISEMENTS:

(1) लोकप्रिय उद्देश्य तथा

(2) सांस्कृतिक उद्देश्य ।

(1) संस्कारों के लोकप्रिय उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

i. अशुभ शक्तियों का निवारण :

प्राचीन हिन्दुओं का विश्वास था कि जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छा तथा बुरा दोनों प्रकार का फल देती हैं । अत: उन्होंने संस्कारों के माध्यम से उनके अच्छे प्रभावों को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य एवं निर्विघ्न विकास हो सके ।

इस उद्देश्य से प्रेतात्माओं एवं आसुरी शक्तियों को अन्न, आहुति आदि के द्वारा शान्त किया जाता था । गर्भाधान, जन्म, बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियाँ दी जाती थीं । कभी-कभी देवताओं की मंत्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि असुरी शक्तियाँ निष्क्रिय हो जायें ।

हिन्दुओं की धारणा थी कि जीवन का प्रत्येक काल किसी देवता द्वारा नियंत्रित होता है । अत: प्रत्येक अवसर पर मंत्रों द्वारा देवता का आवाहन किया जाता था जिससे वह मनुष्य को वरदान एवं आशीर्वचन प्रदान कर सके । गर्भाधान के समय विष्णु, उपनयन के समय वृहस्पति, विवाह के समय प्रजापति आदि की स्तुतियाँ की जाती थी ।

ii. भौतिक समृद्धि की प्राप्ति :

संस्कारों का विधान भौतिक समृद्धि यथा-पशुधन, पुत्र, दीर्घायु, शक्ति, बुद्धि, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया गया था । ऐसी मान्यता थी कि प्रार्थनाओं के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवताओं तक पहुँचाता है तथा प्रत्युत्तर में देवता उसे भौतिक समृद्धि की वस्तुयें प्रदान करते हैं । संस्कारों का यह उद्देश्य आज भी हिन्दुओं के मस्तिष्क में प्रबल रूप से विद्यमान है ।

iii. भावनाओं की अभिव्यक्ति :

संस्कारों के माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दुःख की भावनाओं को प्रकट करता था । पुत्र जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आनन्द एवं उल्लास को व्यक्त किया जाता था । बालक को जीवन में मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशियाँ मनाते थे । इसी प्रकार मृत्यु के अवसर पर शोक व्यक्त किया जाता था । इस प्रकार संस्कार आत्माभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम बनते थे ।

(2) सांस्कृतिक उद्देश्य :

हिंदू-विचारकों ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्य भी रखा । मनुस्मृति में कहा गया है कि संस्कार व्यक्ति की अशुद्धियों का नाश कर उसके शरीर को पवित्र बनाते हैं । ऐसी धारणा थी कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियाँ होती हैं जो जन्म के बाद संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं ।

मनुस्मृति में कहा गया है कि अध्ययन, व्रत, होम, यज्ञ, पुत्रोत्पत्ति से शरीर ब्रह्मीय (ब्रह्ममय) हो जाता है । यह भी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मना शूद्र होता है, संस्कारों से द्विज कहा जाता है, विद्या से विप्रत्व प्राप्त करता है तथा तीनों के द्वारा श्रोत्रिय कहा जाता है ।

संस्कार व्यक्ति को सामाजिक अधिकार एवं सुविधायें भी प्रदान करते थे । उपनयन के माध्यम से वह विद्याध्ययन का अधिकारी बनता तथा द्विज कहा जाता था । समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने का अधिकार दे देता था ।

विवाह संस्कार से मनुष्य समस्त सामाजिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने का अधिकारी बन जाता था । इस प्रकार वह समाज का पूर्ण सदस्य बन जाता था । संस्कार जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष अथवा स्वर्ग प्राप्त करने के भी साधन माने गये थे । इनके द्वारा व्यक्ति का शरीर शुद्ध एवं पवित्र हो जाता था तथा वह परम पद को प्राप्त कर लेता था ।

संस्कारों का नैतिक उद्देश्य (Moral Objectives of Sacraments):

संस्कारों के द्वारा मनुष्य के जीवन में नैतिक गुणों का समावेश होता था । गौतम ने चालीस संस्कारों के साथ-साथ आठ गुणों का भी उल्लेख किया है तथा व्यवस्था दी है कि संस्कारों के साथ इन गुणों का आचरण करने चाला व्यक्ति ही ब्रह्म को प्राप्त करता है । ये हैं- दया, सहिष्णुता, ईर्ष्या न करना, शुद्धता, शान्ति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग । प्रत्येक संस्कार के साथ कोई न कोई नैतिक आचरण संयुक्त रहता था ।

व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास :

संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता था । जीवन के प्रत्येक चरण में संस्कार मार्ग दर्शन का काम करते थे । उनकी व्यवस्था इस प्रकार की गयी थी कि वे जीवन के प्रारम्भ से ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सकें ।

उपनयनादि संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को शिक्षित एवं सुसंस्कृत बनाना धा । विवाह के माध्यम से वह पूर्ण गृहस्थ बन जाता तथा देश और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता था । वस्तुतः हिंदू चिन्तकों ने संस्कारों को व्यक्ति के लिये अनिवार्य बनाकर उसके सर्वाड्गीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया था ।

आध्यात्मिक प्रगति :

संस्कार व्यक्ति की भौतिक उन्नति के साथ ही साथ आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त करते थे । सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियायें सम्बद्ध रहती थी । इन्हें सम्पन्न करके मनुष्य भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की भी कामना रखता था ।

उसे यह अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियायें आध्यात्मिक सत्य को प्राप्त करने के लिये हैं । संस्कारों के अभाव में हिन्दू जीवन पूर्णतया भौतिक हो गया होता । प्राचीन हिन्दुओं का विश्वास था कि संस्कारों के विधिवत् पालन से ही वे भौतिक बाधाओं से बच सकते हैं तथा भवसागर को पार कर सकते हैं । इस प्रकार संस्कार मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे । संस्कार हिन्दू जीवन-पद्धति के अभिन्न अंग थे ।

षोडश संस्कार :

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संस्कारों की षोडश संख्या ही कालान्तर में लोकप्रिय हुई ।

ये इस प्रकार हैं:

(1) गर्भाधान,

(2) पुंसवन,

(3) सीमन्तोन्नयन,

(4) जातकर्म,

(5) नामकरण,

(6) निष्क्रमण,

(7) अन्नप्राशन,

(8) चूड़ाकरण,

(9) कर्णवेध,

(10) विद्यारम्भ,

(11) उपनयन,

(12) वेदारम्भ,

(13) केशान्त,

(14) समावर्त्तन,

(15) विवाह तथा

(16) अंत्येष्टि ।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किया जावेगा :

(1) गर्भाधान :

यह जीवन का प्रथम संस्कार था जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता था । इस संस्कार का प्रचलन उत्तर वैदिक काल से हुआ । सूत्रों तथा स्मृति-ग्रन्थों में इसके लिये उपयुक्त समय एवं वातावरण का उल्लेख मिलता है । इसके लिये आवश्यक था कि स्त्री ऋतुकाल में हो ।

ऋतुकाल के बाद की चौथी से सोलहवीं रात्रियां गर्भाधान के लिये उपयुक्त बताई गयी हैं । अधिकांश गृह्यसूत्रों तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है । आठवीं, पन्द्रहवीं, अठारहवीं एवं तीसवीं रात्रियों में गर्भाधान वर्जित था । सोलह रात्रियों में प्रथम चार, ग्यारह एवं तेरह निन्दित कही गयी हैं तथा शेष दस को श्रेयस्कर बताया गया है ।

गर्भाधान के निमित्त रात्रि का समय ही उपयुक्त था, दिन में यह कार्य वर्जित था । प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागी, दुर्बल एवं अल्पायु सन्तानें उत्पन्न होती है । किन्तु जो व्यक्ति अपनी पत्नी से दूर विदेश में रहते थे उनके लिये इस नियम में छूट प्रदान की गयी । गर्भाधान के लिये रात्रि का अन्तिम पहर भी अभीष्ट माना गया ।

समरात्रियों में गर्भाधान होने पर पुत्र एवं विषम में कन्या उत्पन्न होती है, ऐसी मान्यता थी । प्राचीन काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अन्तर्गत स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा उसके नपुंसक होने पर उसके भाई अथवा सगोत्र व्यक्ति से सन्तानोत्पत्ति के निमित्त गर्भाधान करवाती थी । किन्तु अधिकांश ग्रन्थों में इसकी निन्दा की गयी है । मनु ने इसे “पशुधर्म” बताया है ।

गर्भाधान प्रत्येक विवाहित पुरुष तथा स्त्री के लिये पवित्र एवं अनिवार्य संस्कार था जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य, सुन्दर एवं सुशील सन्तान प्राप्त करना था । पाराशर ने यह व्यवस्था दी कि जो पुरुष स्वास्थ्य होने पर भी ऋतुकाल में अपनी पत्नी से समागम नहीं करता है वह बिना किसी संदेह के भ्रूण हत्या का भागी होता है ।

स्त्री के लिये भी अनिवार्य था कि वह ऋतुकाल के स्नान के बाद अपने पति के पास जाये । पाराशर के अनुसार ऐसा न करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म शूकरी के रूप में होता है । गर्भाधान पुत्र-प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम एवं महत्वपूर्ण संस्कार था । सामाजिक तथा धार्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व था ।

वैदिक युग के लिए स्वास्थ्य एवं बलिष्ठ सन्तानें उत्पन्न करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य था । नि:सन्तान व्यक्ति आदर का पात्र नहीं था । ऐसी मान्यता थी कि जिस पिता के जितने अधिक पुत्र होंगे वह स्वर्ग में उतना ही अधिक सुख प्राप्त करेगा । पितृऋण से मुक्ति भी सन्तानोत्पन्न करने पर ही मिलती थी ।

(2) पुंसवन:

गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र-प्राप्ति के निमित्त यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था । पुंसवन का अर्थ है “वह अनुष्ठान या कर्म जिससे पुत्र की उत्पत्ति हो” (पुमान् प्रसूयते येन कर्मणा तत्पुंसवनमीरितम्) । इस संस्कार के माध्यम से उन देवताओं को पूजा द्वारा प्रसन्न किया जाता था जो गर्भ में शिशु की रक्षा करते थे ।

चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर यह संस्कार सम्पन्न होता था क्योंकि यह समय पुत्र-प्राप्ति के लिये उपयुक्त माना गया । रात्रि के समय वटवृक्ष की छाल का रस निचोड़कर स्त्री की नाक के दाहिनी छिद्र में डाला जाता था ।

इससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती तथा सभी विध्न-बाधायें दूर हो जाती थीं । हिन्दू समाज में पुत्र का बड़ा ही महत्व था । उसी के माध्यम से परिवार की निरन्तरता बनी रहती थी । इस प्रकार पुंसवन संस्कार का उद्देश्य परिवार तथा इसके माध्यम से समाज का कल्याण करना होता था ।

(3) सीमन्तोन्नयन:

गर्भाधान के चौथे से आठवें मास तक यह संस्कार सम्पन्न होता था । इसमें स्त्री के केशों (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता था । ऐसी अवधारणा थी कि गर्भवती स्त्री के शरीर को प्रेतात्मायें नाना प्रकार की बाधा पहुँचाती हैं जिनके निवारण के निमित्त कुछ धार्मिक कृत्य किये जाने चाहिये ।

इसी उद्देश्य से इस संस्कार का विधान किया गया । इसके माध्यम से गर्भवती नारी की समृद्धि तथा भ्रूण की दीर्घायु की कामना की जाती थी । इस संस्कार के सम्पादित होने के दिन स्त्री व्रत रहती थी । पुरुष मातृपूजा करता था तथा प्रजापति देवताओं को आहुतियाँ दी जाती थीं ।

इस समय वह अपने साथ कच्चे उदुम्बर फलों का एक गुच्छा तथा सफेद चिह्न वाले शाही के तीन कांटे रखता था । स्त्री अपने केशों में सुगन्धित तेल डालकर यज्ञ मण्डप में प्रवेश करती थी जहां वेद मन्त्रों के उच्चारण के बीच उसका पति उसके बालों को ऊपर उठाता था । वाद में गर्भिणी स्त्री के शरीर पर एक लाल चिह्न बनाया जाने लगा जिससे भूत, प्रेतादि भयभीत होकर उससे दूर रहें । इस संत्कार के साथ स्त्री को सुख तथा सान्त्वना प्रदान की जाती थी ।

(4) जातकर्म:

शिशु के जन्म के समय जातकर्म नामक संस्कार सम्पन्न होता था । सामान्यतः बच्चे के नार काटने के पूर्व ही इसे किया जाता था । उसका पिता सविधि स्नान करके उसके पास जाता तथा पुत्र को स्पर्श करता एवं सूंघता था । इस अवसर पर वह उसके कानों में अशीर्वादात्मक मंत्रों का उच्चारण करता था, जिसके माध्यम से दीर्घ आयु एवं बुद्धि की कामना की जाती थी ।

तत्पश्चात् बच्चे को मधु तथा घृत चटाया जाता था, फिर प्रथम बार वह मां का स्तनपान करता था । संस्कार की समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को उपहार दिये जाते एवं भिक्षा बाँटी जाती थी । सभी माता एवं शिशु के दीर्घ एवं स्वास्थ्य जीवन की कामना करते थे ।

(5) नामकरण (नामधेय):

बच्चे के जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन ”नामकरण” संस्कार होता था जिसमें उसका नाम रखा जाता था । प्राचीन हिन्दू समाज में नामकरण का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । वृहस्पति के अनुसार नाम ही लोक व्यवहार का प्रथम साधन है । यह गुण एवं भाग्य का आधार है ।

इसी से मनुष्य यश प्राप्त करता है । प्राचीन शास्त्रों में इस संस्कार का विस्तृत विवरण मिलता है । इस संस्कार के निमित्त शुभ तिथि, नक्षत्र एवं मुहूर्त का चयन किया जाता था । यह ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का नाम परिवार, समुदाय एवं वर्ण का नाम बोधक हो ।

नक्षत्र, मास तथा कुल देवता के नाम पर अथवा व्यावहारिक नाम भी बच्चे को प्रदान किये जाते थे । कन्या का नाम मनोहर, मंगल सूचक, स्पष्ट अर्थ वाला तथा अन्त में दीर्घ अक्षर वाला रखे जाने का विधान था । मनु के अनुसार बच्चे का नाम उसके वर्ण का द्योतक होना चाहिए ।

उनके अनुसार ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का बलसूचक, वैश्य का धनसूचक तथा शूद्र का निन्दा सूचक होना चाहिए । विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘ब्राह्मण अपने नाम के अन्त में शर्मा, क्षत्रिय वर्मा, वैश्य गुप्त तथा शूद्र दास लिखें’ । नामकरण संस्कार के पूर्व घर को धोकर पवित्र किया जाता था ।

माता तथा शिशु स्नान करते थे । तत्पश्चात् माता बच्चे का सिर जल से भिगो कर तथा साफ कपड़े से उसे ढँककर उसके पिता को देती थी । फिर प्रजापति नक्षत्र देवताओं, अग्नि, सोम आदि को बलि दी जाती थी । पिता बच्चे की श्वांस का स्पर्श करता था तथा फिर उसका नामकरण किया जाता था । संस्कार के अन्त में ब्राह्मण को भोज दिया जाता था ।

(6) निष्क्रमण:

बच्चे के जन्म के तीसरे अथवा चौथे माह में यह संस्कार सम्पन्न होता था जिसमें उसे प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता था । यह संस्कार माता-पिता सम्पन्न करते थे । उस दिन घर के आँगन में एक चौकोर भाग को गोबर तथा मिट्टी से लीपा जाता था । उस पर स्वस्तिक का चिह्न बनाकर धान छींट दिया जाता था ।

बच्चे को स्नान कराकर, नये परिधान में यज्ञ के सामने करके वेदमन्त्रों का पाठ किया जाता था । फिर माँ बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे प्रथम बार सूर्य का दर्शन कराया जाता था । इसी के साथ उसका घर के बाहरी वातावरण से भी सम्पर्क होता था ।

(7) अन्नप्राशन:

बच्चे के जम के छठें माह में अन्नप्राशन नामक संस्कार होता था जिसमें प्रथम बार उसे पका हुआ अन्न खिलाया जाता था । इसमें दूध, घी, दही तथा पका हुआ चावल खिलाने का विधान था । गृह्य सूत्रों में इस संस्कार के समय विभिन्न पक्षियों के मास एवं मछली खिलाये जाने का भी विधान मिलता है ।

उसकी वाणी में प्रवाह लाने के लिये भरद्वाज पक्षी का मांस तथा उसमें कोमलता लाने के लिये मछली खिलाई जाती थी । इसका उद्देश्य बच्चे को शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वास्थ्य बनाना था । बाद में केवल दूध और चावल खिलाने की प्रथा प्रचलित हो गयी ।

अन्नप्राशन संस्कार के दिन भोजन को पवित्र ढंग से वैदिक मंत्री के बीच पकाया जाता था । सर्वप्रथम वाग्देवी को आहुति दी जाती थी । अन्त में बच्चे का पिता सभी अन्नों को मिलाकर बच्चे को उसे ग्रहण कराता था । तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोज देकर इस संस्कार की समाप्ति होती थी । इस संस्कार का उद्देश्य यह था कि एक उचित समय पर बच्चा माँ का दूध पीना छोड़कर अनादि से अपना निर्वाह करने योग्य बन सके ।

(8) चूड़ाकरण (चौल कर्म):

अन्नप्राशन के वाद का महत्वपूर्ण संस्कार चूड़ाकरण या चौलकर्म था जिसमें पहली बार बालक के बाल काटे जाते थे । गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष की समाप्ति अथवा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व यह संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए ।

कुछ स्मृतिकार इसकी अवधि पाँचवें तथा सातवें वर्ष तक रखते हैं । आश्वलायन का विचार है कि चूड़ाकर्म तीसरे या पाँचवें वर्ष में होना प्रशंसनीय है किन्तु इसे सातवें वर्ष अथवा उपनयन के समय भी किया जा सकता है । कुछ शास्त्रकारों के अनुसार कुल तथा धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार इसे करना चाहिए (यशाकुलधर्म वा) ।

पहले यह संस्कार घर में ही होता था किन्तु बाद में इसे किसी मन्दिर में देवता के सामने किया जाने लगा । इसके लिये एक शुभ दिन तथा मुहूर्त निश्चित किया जाता था । प्रारम्भ में संकल्प, गणेश पूजा, मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होता था तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था ।

तदुपरान्त माँ बच्चे को स्नान करवाकर नये वस्त्रों में लेकर यज्ञीय अग्नि के पश्चिम की और बैठती थी । इसके बाद पूजा-अर्चन के बीच बच्चे का बाल काटा जाता था । कटे हुये बाल को गाय के गोवर में छिपा दिया जाता था ।

बालक के सिर पर मक्खन अथवा दही का लेप किया जाता था बालों को गोबर में ढँकने के पीछे यह धारणा थी कि वे शरीर के अंग हैं, अत: ये शत्रुओं द्वारा जादू-टोने के शिकार न हो जायँ । इसी कारण उन्हें सबकी पहुँच के बाहर रखा जाता था । इस संस्कार के पीछे यह भावना थी कि बच्चे को स्वच्छता और सफाई का ज्ञान कराया जा सके जो स्वास्थ्य के लिये आवश्यक थे ।

(9) कर्णवेध:

इस संस्कार में बालक का कान छेदकर उसमें वाली अथवा कुण्डल पहना दिया जाता था । सुश्रुत् ने इसका उद्देश्य रक्षा तथा अलंकरण बताया है । इसके समय के विषय में मतभेद है । विभिन्न शास्त्रकार इसे जन्म के दशवें दिन से लेकर पाँचवें वर्ष तक बताते हैं ।

कर्णवेधन के लिये स्वर्ण, रजस् तथा अयस् (लोहा) की सूइयों का प्रयोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया जाता था । विभिन्न प्रकार की सूइयों का प्रयोग विभिन्न वर्ण के बालकों के लिये होता था । क्षत्रिय बालक का कर्णवेध स्वर्ण की सूई से, ब्राह्मण तथा वैश्य का रजत की सूई से तथा शूद्र का लोहे की सूई से किये जाने का विधान मिलता है ।

यह धार्मिक रीति से सम्पन्न किया जाता था । बच्चे को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठाया जाता था । उसे मिठाई खाने को दी जाती थी । तत्पश्चात् वैदिक मन्त्रों के बीच पहले दायाँ तथा फिर बायाँ कान छेदा जाता था । कर्णवेध एक अनिवार्य संस्कार था जिसे न करना पाप समझा गया ।

देवल की व्यवस्था है कि जिस ब्राह्मण का कर्णवेध न हुआ हो उसे दक्षिण नहीं दी जानी चाहिए । जो उसे दक्षिणा देता है वह असुर या राक्षस होता है । कर्णवेध संस्कार का विधान बच्चे को भविष्य में स्वास्थ्य रखने के उद्देश्य से हुआ । सुश्रुत् ने लिखा है कि कर्णवेध अण्डकोश वृद्धि तथा अन्त्रवृद्धि के रोगों से छुटकारा दिलाता है ।

(10) विद्यारम्भ :

जब बच्चे का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था, तब यह संस्कार सम्पन्न कराया जाता था जिसमें उसे अक्षरों का बोध कराया जाता था । इसी कारण लोग इसे ”अक्षरारम्भ” भी कहते हैं । इसका समय जन्म के पाचवें वर्ष अथवा उपनयन संस्कार के पूर्व बताया गया है ।

विद्यारम्भ संस्कार एक शुभ दिन एवं मुहूर्त में सम्पन्न होता था । उस दिन बच्चे को स्नान कराकर सुगंधित द्रव्यों एवं वस्त्रों से उसे सजाया जाता था । पहले गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी तथा कुल देवों की पूजा होती थी । तत्पश्चात् शिक्षक पूर्व दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से “ओम्”, स्वस्ति, नम: सिद्धाय आदि लिखवाकर विद्यारम्भ करवाता था ।

बालक गुरु की पूजा करता था तथा अपने लिखे हुए को तीन बार पड़ता था । बालक गुरु को वस्त्र तथा आभूषण प्रदान करता था तथा देवताओं की तीन बार परिक्रमा करता था । उपस्थित ब्राह्मण उसे आशीर्वाद देते थे । संस्कार की समाप्ति पर गुरु को पगड़ी भेंट की जाती थी । विद्यारम्भ संस्कार का सम्बन्ध बालक की बुद्धि और ज्ञान से था । इससे उसमें अन्तर्निहित बौद्धिक गुण प्रकट होकर सामने आते थे ।

(11) उपनयन:

प्राचीन हिन्दू संस्कारों में ”उपनयन” का सबसे अधिक महत्व था जिसके माध्यम से बालक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता था । वस्तुतः उसके बौद्धिक उत्कर्ष का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता था । “उपनयन” का शाब्दिक अर्थ है समीप ले जाना । इससे तात्पर्य बालक को शिक्षा के निमित्त गुरु के पास ले जाने से है । इस संस्कार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है । वैदिक युग में यह एक प्रचलित संस्कार था । ऋग्वेद में दो स्थानों पर “ब्रह्मचर्य” शब्द का उल्लेख धार्मिक विद्यार्थी के जीवन के अर्थ में हुआ है ।

अथर्ववेद में सूर्य का वर्णन ब्राह्मण विद्यार्थी के रूप में अपने आचार्य के पास “समिध” तथा भिक्षा के साथ जाते हुए किया गया है । शतपथ ब्राह्मण में उद्दालक नामक विद्यार्थी का उल्लेख है जो अपने गुरु के पास शिक्षा के लिये गया तथा उससे अपने को ब्राह्मचारी के रूप में स्वीकार किये जाने की प्रार्थना की । सूत्र तथा स्मृति साहित्य में इस संस्कार का विस्तारपूर्वक विवरण मिलता है ।

उपनयन की आयु :

प्राचीन ग्रन्थों में उपनयन के लिये विद्यार्थी की आयु का विवरण प्राप्त होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य विद्यार्थी के लिये क्रमशः आठ, ग्यारह तथा बारह वर्ष की आयु का निर्धारण किया गया । बौद्धायन का विचार है कि आठ से सोलह वर्ष के बीच उपनयन संस्कार सम्पन्न होना चाहिए ।

सोलह वर्ष के बाद वैदिक शिक्षा ग्रहण करने की मान्यता नहीं दी गयी है । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य बालकों के लिये उपनयन की जो भिन्न-भिन्न आयु निर्धारित की गयी उसके लिये उनकी पारिवारिक परम्परायें ही उत्तरदायी थीं, न कि जातिगत भेदभाव की अवधारणा ।

ब्राह्मण परिवार में बालक प्रायः अपने परिवार में ही शिक्षा प्रारम्भ करते थे जबकि अन्य वर्णों के बालकों को इसके लिये गृह त्याग करने पड़ते थे । अत: जब वे अपने माता-पिता से अलग रहने योग्य हो जाते थे सभी उनका उपनयन होता था । स्पष्टतः यह अवस्था ब्राह्मण बालकों से अधिक होती होगी जिन्हें अपने घर में ही शिक्षा ग्रहण करनी होती थी ।

उपनयन का उद्देश्य :

उपनयन संस्कार का उद्देश्य मुख्यतः शैक्षणिक था । याज्ञवल्क्य के अनुसार इसका सर्वोच्च ध्येय वेदों का अध्ययन करना है । उनके अनुसार आचार्य को दीक्षित शिष्य को वेद तथा आचार की शिक्षा देनी चाहिए । आपस्तम्ब तथा भारद्वाज ने उपनयन से तात्पर्य शिक्षा ग्रहण करना बताया है (उपनयन विद्यार्थस्य श्रुतित: संस्कार इति) । कालान्तर में इसका उद्देश्य धार्मिक हो गया तथा इसे एक कर्मकाण्ड के रूप में सम्पादित किया जाने लगा । मनुस्मृति में विहित है कि उपनयन इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों जीवन को पवित्र बनाता है ।

(12) वेदारम्भ:

इस संस्कार का उल्लेख सर्वप्रथम व्यास स्मृति में मिलता है । प्रारम्भ में उपनयन तथा वेदों का अध्ययन प्रायः एक ही साथ प्रारम्भ होता था । वेदों का अध्ययन गायत्री मन्त्र के साथ प्रारम्भ किया जाता था । कालान्तर में वेदों का अध्ययन मन्द पड़ गया तथा संस्कृत बोल-चाल की भाषा नहीं रह गयी । अब उपनयन एक शारीरिक संस्कार हो गया जिसके साथ बालक वेदाध्ययन के स्थान पर अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने लगा ।

अत: समाजशास्त्रियों ने वेदों के अध्ययन की परम्परा बनाये रखने के उद्देश्य से इसे एक नवीन संस्कार का रूप दिया तथा उपनयन को इससे अलग कर दिया । यह पूर्णतया शैक्षणिक संस्कार था जिसका प्रारम्भ बालक के वेदाध्ययन से होता था । वेदाध्ययन संस्कार के प्रारम्भ में मातृपूजा होती थी । तदुपरान्त आचार्य लौकिक अग्नि प्रज्वलित करके विद्यार्थी को उसके पश्चिम में आसीन करता था ।

यदि ऋग्वेद का अध्ययन प्रारम्भ करना होता था तो पृथ्वी तथा अग्नि को घी की दो आहुतियाँ दी जाती थीं, यजुर्वेद के अध्ययन में अंतरिक्ष तथा वायु को, सामवेद के अध्ययन में द्यौस तथा सूर्य को और अथर्ववेद के अध्ययन के समय दिशाओं एवं चन्द्रमा को आहुतियाँ दी जाती थीं ।

यदि सभी वेदों का अध्ययन प्रारम्भ करना होता था तो सभी देवताओं को आहुतियाँ दिये जाने का विधान था । अन्त में स्थानापन्न पुरोहित को दक्षिणा देने के बाद आचार्य विद्यार्थी को वेद पढ़ाना प्रारम्भ करता था । मनुस्मृति में कहा गया है कि वेदाध्ययन के प्रारम्भ तथा अन्त में विद्यार्थी को “ऊँ” शब्द का उच्चारण करना चाहिए । प्रारम्भ में उच्चारण न होने से अध्ययन नष्ट हो जाता है तथा अन्त में न करने से ठहरता नहीं है ।

(13) केशान्त अथवा गोदान:

गुरु के पास रहकर अध्ययन करते हुये विद्यार्थी की सोलह वर्ष की आयु में प्रथम बार दाढ़ी-मूँछ बनवाई जाती थी । इसे ”केशान्त संस्कार” कहा गया है । इस अवसर पर गुरु को एक गाय दक्षिणा स्वरूप दी जाती थी । इसी कारण इसे गोदान संस्कार की भी संज्ञा प्रदान की गयी है । इस संस्कार के माध्यम से विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य जीवन के व्रतों की एक वार पुन: याद दिलायी जाती थी जिन्हें पालन करने का वह पुन: व्रत लेता था ।

केशान्त संस्कार की विधि चूड़ाकर्म जैसी ही थी । वैदिक मन्त्रों के बीच नाई विद्यार्थी की दाढ़ी-मूंछ काटता था । बालों को पानी में प्रवाहित कर दिया जाता था । फिर विद्यार्थी गुरु को एक गाय दक्षिणा में देता था । अन्त में वह मौन व्रत रहता था तथा एक वर्ष तक कठोर अनुशासन का जीवन व्यतीत करता था ।

(14) समावर्तन:

गुरुकुल में शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् विद्यार्थी जब अपने धर लौटता था तब समावर्तन नामक संस्कार सम्पन्न होता था । इसका शाब्दिक अर्थ है- ”गुरु के आश्रम से स्वगृह को वापस लौटना ।” इसे “स्नान” भी कहा गया है क्योंकि इस अवसर पर स्नान सबसे महत्वपूर्ण कार्य था । इसी के बाद विद्यार्थी “स्नातक” बनता था ।

समावर्तन संस्कार के लिये कोई आयु निर्धारित नहीं थी । सामान्यतः इसका सम्पादन विद्यार्थी के अध्ययन की पूर्ण समाप्ति के पश्चात् ही होता था । राजबली पाण्डेय का विचार है कि समावर्तन संस्कार प्रारम्भ में आधुनिक दीक्षान्त समारोह के समान था ।

यह उन्हीं विद्यार्थियों का होता था जो ब्रह्मचर्याश्रम के सम्पूर्ण व्रतों का पालन करते हुए विधिवत् अपनी शिक्षा पूरी कर लेते थे । कालान्तर में यह नियम शिथिल पड़ गया । समावर्तन संस्कार किसी शुभ दिन को सम्पन्न होता था ।

इस दिन विद्यार्थी प्रातःकाल एक कमरे में बन्द रहता था । ऐसा सूर्य को ब्रह्मचारी के तेज से अवमानित होने से बचाने के लिये किया जाता था क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि सूर्य ब्रह्मचारी के तेज से ही प्रकाशमान होता है ।

मध्याह्न में विद्यार्थी कमरे से बाहर निकलकर गुरु का चरण स्पर्श करता था तथा वैदिक अग्नि में समिधा डालकर उसके प्रति अपनी अन्तिम श्रद्धांजलि प्रकट करता था । आठ जलपूर्ण कलश वहाँ रखे जाते थे । ये इस बात के सूचक थे कि विद्यार्थी को पृथ्वी की सभी दिशाओं से प्रशंसा तथा सम्मान प्राप्त है ।

तत्पश्चात् ब्रह्मचारी उन कलशों के जल से स्नान करता था तथा देवताओं से प्रार्थना करता था । स्नान के पश्चात वह दण्ड, मेखला, मृगचर्म आदि का परित्याग कर नया कौपीन पहनता धा । दाढी-बाल, नाखून आदि कटवाकर वह पवित्र हो जाता था ।

अब उसकी साधना एवं तपस्या का जीवन समाप्त होता था तथा गुरु उसे आनन्द एवं विलासिता की सामग्रियाँ प्रदान करता था । उसके शरीर पर सुगंधित लेप लगाया जाता था । उसे नये परिधान, आभूषण, छत्रादि प्रदान किये जाते थे ।

जीवन में सुरक्षा के लिये उसे बाँस का एक डण्डा दिया जाता था । अन्त में स्नातक आचार्य का आर्शीवचन एवं उसकी आज्ञा लेकर स्वगृह को प्रस्थान करता था । इस अवसर पर उसे गुरु को दक्षिणा भी देनी होती थी जिसे वह अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार देता था । कभी-कभी गुरु विद्यार्थी की भक्ति एवं सेवा से प्रसन्न होकर उसे ही दक्षिणा मान लेता था । समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति प्रदान करता था ।

(15) विवाह :

यह प्राचीन हिन्दू समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है जिसकी महत्ता आज भी विद्यमान है । गृहस्थाश्रम का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता था । “विवाह” शब्द “वि” उपसर्गपूर्वक “वह” धातु से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है- “वधू को वर के घर ले जाना या पहुँचाना ।” किन्तु अति प्राचीन काल से यह शब्द सम्पूर्ण संस्कार को द्योतित करता है । हिन्दू समाज में इसे एक पवित्र धार्मिक संस्था के रूप में मान्यता दी गयी है जिसका उद्देश्य पति और पत्नी के सहयोग से विभिन्न पुरुषार्थों को पूरा करना था ।

इसे एक यह माना गया जिसे न करने वाला यज्ञरहित होता था । हिन्दू धारणा में अकेले व्यक्ति का जीवन एकांगी है तथा वह पूर्ण तभी होता है जबकि पत्नी का सहयोग उसे प्राप्त हो जाये । जब समाज में तीन ऋणों का सिद्धान्त लोकप्रिय हुआ, तब विवाह संस्कार को और अधिक मान्यता एवं पवित्रता प्राप्त हुई क्योंकि बिना इसके व्यक्ति पितृऋण से मुक्त नहीं हो सकता था ।

पाश्चात्य संस्कृतियों में विवाह को जहाँ एक संविदा मात्र माना गया, वहाँ हिन्दू संस्कृति में इसे कभी भी समाप्त न होने वाली संस्था माना गया । इसका आदर्श मात्र यौनसुख प्राप्त करने से कहीं बढ़कर था । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना तथा साथ ही साथ समाज का भी पूर्ण एवं सम्यक् विकास करता है ।

इस प्रकार विवाह को एक अनिवार्य संस्कार बताया गया जिसे सम्पन्न करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये धार्मिक और सामाजिक बाध्यता थी । सभी वर्गों के लिए इसे करना आवश्यक माना गया । याज्ञवल्क्य ने स्पष्टतः लिखा है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कोई भी हो, यदि वह विवाहित नहीं है तो कर्म के योग्य नहीं है ।

(16) अन्त्येष्टि संस्कार :

मानव जीवन का अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है जो मृत्यु के समय सम्पादित किया जाता है । इसका उद्देश्य मृतात्मा को स्वर्ग लोक में सुख और शान्ति प्रदान करना है । बौद्धायन के अनुसार जन्म के बाद के संस्कारों द्वारा व्यक्ति लोक को जीतता है तथा इस (अन्त्येष्टि) संस्कार के द्वारा वह स्वर्ग की विजय करता है ।

अन्त्येष्टि संस्कार की प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है । उस समय से ही मनुष्य की यह मान्यता रही है कि मृत्यु के समय शरीर का पूर्ण विनाश नहीं होता, बल्कि उसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहता है ।

पाषाण काल की जातियाँ अपने मृतकों को आदरपूर्वक दफनाती थीं तथा उनके साथ दैनिक उपयोग की वस्तुयें भी रख दी जाती थीं । कालान्तर में हिन्दू धर्म ने आत्मा की अमरता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । अत: आत्मा की स्वर्ग में शान्ति के निमित्त विधिपूर्वक यह संस्कार सम्पादित किया जाता था ।

हिन्दू समाज में मृतक शरीर को जलाने, गाड़ने अथवा फेंकने की प्रथा प्रचलित थी । शवदाह के प्रायः तेरह दिन बाद तेरही होती थीं और इसमें पिण्डदान, श्राद्ध एवं ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था । इसके बाद मृतक का परिवार शुद्ध हो जाता था । ये सभी क्रियायें आज भी हिन्दू समाज में विधिपूर्वक सम्पन्न होती हैं ।

इस प्रकार समस्त संस्कार का विवेचन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इनका आदर्श बड़ा ही उदात्त था । वस्तुतः हिन्दू चिन्तकों ने व्यक्ति के सर्वाड्गीण विकास को ध्यान में रखकर इनका विधान किया । संस्कार निश्चयत: व्यक्ति के भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही विकास में सहायक थे ।

जीवन के विभिन्न स्तरों पर सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों से

संस्कार की विधि (Method of Sacrament):

बालक का उपनयन संस्कार एक शुभ समय में होता था । ब्राह्मण का संस्कार बसन्त ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में तथा वैश्य का पतझड़ में किये जाने का विधान था । संस्कार सम्पन्न होने के एक दिन पूर्व गणेश, मेधा, लक्ष्मी, धृति, श्रद्धा, सरस्वती आदि की पूजा की जाती थी ।

इसके पूर्व की रात्रि को बालक मौन व्रत धारण करता था । प्रात:काल वह अपनी माता के साथ एक ही थाली में भोजन ग्रहण करता था जो माँ के साथ उसका अन्तिम भोजन होता था । इसके बाद वह सिद्धान्तत: अपनी माँ के साथ कभी भी भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था ।

अल्टेकर का विचार है कि यह क्रिया बालक को याद दिलाने के उद्देश्य से थी कि उसका अनियमित बचपन का जीवन समाप्त हो गया है और आगे उसे नियमित एवं अनुशासित जीवन व्यतीत करना है । राजबली पाण्डेय का विचार है कि यह माता तथा पुत्र का विदाई-भोज भी हो सकता है जो पुत्र के प्रति माता के गहरे स्नेह को प्रकट करता है ।

इसके बाद बालक के बाल बनवाकर उसे स्नान कराया जाता था तथा वह कौपीन वस्त्र धारण करता था । उसके कमर के चारों ओर एक मेखला बांधी जाती थी । इसमें तीन डोरियाँ थीं जो उसे यह याद दिलाती थीं कि आगे वह तीन वेदों से घिरने वाला है (वेदत्रयेणावृत्तोहमिति मन्यते स द्विज:) ।

इस अवसर पर उच्चरित मंत्रों द्वारा बालक को सूचित किया जाता था कि- “मेखला श्रद्धा की पुत्री तथा ऋषियों की भगिनी है, उसकी शुद्धता एवं पवित्रता की रक्षा करने की शक्ति से युक्त है तथा बुराइयों से उसे दूर रखेगी ।”

इस अवसर पर गुरु के द्वारा प्रदत्त उत्तरीय वस्त्र से वह अपने शरीर का ऊपरी भाग ढँकता था । तत्पश्चात् बालक जनेऊ धारण करता था जिसमें तीन धागे रहते थे । गृह्यसूत्रों से पता चलता है कि पहले जनेऊ धारण करने की प्रथा नहीं थी तथा उसके स्थान पर उत्तरीय ही धारण किया था ।

कालान्तर में उत्तरीय का स्थान जनेऊ ने ग्रहण कर लिया । तीनों वर्णों के लिये अलग-अलग प्रकार के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है । मनु के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्णों के विद्यार्थी क्रमशः कपास, ऊन तथा सन की जनेऊ धारण करें ।

बाद में सभी के लिये कपास का जनेऊ धारण करने की मान्यता प्रदान की गयी । जनेऊ में तीन डोरियाँ होती थीं । ये तीन गुणों-सन, रज तथा तम-की प्रतीक मानी गयीं । ये धारक को यह भी याद दिलाती थीं कि उसे अपने पूर्वजों के प्रति तीन ऋणों- ऋषि, देव तथा पितृ ऋण, से उऋण होना है ।

गुरु विद्यार्थी के कन्धे में यज्ञोपवीत धारण कराते हुए उसके बल, दीर्घायु तथा तेज की कामना करता था । ब्रह्मचारी केवल एक जनेऊ धारण कर सकता था । गृहस्थ के लिये दो जनेऊ धारण किये जाने का विधान था । यज्ञोपवीत के बाद विद्यार्थी को मृगचर्म (अजिन) तथा दण्ड प्रदान किये जाते थे । ब्राह्मण के लिये पलाश, क्षत्रिय के लिये उदुम्बर तथा वैश्य के लिये विल्व की लकड़ी का दण्ड धारण किये जाने का विधान था ।

उपर्युक्त विधि से तैयार विद्यार्थी के अंजुलीबद्ध हाथों पर अपने हाथ से गुरु पानी डालकर उसे पवित्र करता था । फिर उसे सूर्य का दर्शन कराया जाता था । इससे विद्यार्थी को कर्तव्य-परायणता एवं अनुशासन का ज्ञान होता था । तत्पश्चात् गुरु विद्यार्थी का हृदय स्पर्श करता हुआ अपनत्व का परिचय देता था ।

विद्यार्थी को एक पाषाण खण्ड पर खड़े होने को कहा जाता था जिससे उसमें अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ता आ सके । इसके बाद गुरु विद्यार्थी का दायाँ हाथ अपने हाथ में लेता था तथा उसे अपनाते हुए सावित्री मन्त्र के साथ उपदेश देता था । सावित्री मन्त्र के ज्ञान से बालक का दूसरा जन्म होता था ।

इस समय से आचार्य उसका पिता तथा सावित्री उसकी माता मानी जाती थी । सावित्री मन्त्र इस प्रकार था- “हम उस सूर्य के श्रेष्ठ तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है ।” सावित्री का ज्ञान हो जाने के बाद यज्ञीय अग्नि प्रज्वलित की जाती थी तथा उसमें आहुतियाँ डाली जाती थीं । तत्पश्चात् विद्यार्थी भिक्षा-याचन के लिये निकलता था जो उसकी नम्रता तथा सदाचारिता का प्रतीक था । अब वह पूर्णतया समाज पर आश्रित हो जाता था तथा समाज उसके निर्वाह का भार अपने ऊपर उठाता था ।

प्राचीन हिन्दू समाज में उपनयन एक अनिवार्य संस्कार था । इसका विधान समाज के प्रथम तीन वर्षों- ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिये ही किया गया । इन तीनों को “द्विज” कहा गाता था जिनका इसके द्वारा दूसरा जन्म होता था । इस संस्कार का सामाजिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही महत्व था ।

इस संस्कार के बाद ही बालक अपने वर्ग तथा समाज का पूर्ण सदस्य बनता था तथा अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक विरासत को प्राप्त करने का अधिकार उसे मिलता था । आध्यात्मिक महत्व यह था कि इस संस्कार के माध्यम से ही वह वेद-वेदांगों के अध्ययन का अधिकारी हो पाता था तथा वह सावित्री मन्त्र का उच्चारण कर सकता था ।

उपनयन संस्कार से बालक की सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ जाती थी तथा “आर्य” के सभी अधिकारों का वह उपभोग कर सकता था । इस समय से उसे कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, आशाओं एवं आकांक्षाओं का एक नया संसार प्राप्त होता था जिसमें रहते हुए वह अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता था ।

यह बालक के नये जीवन का सूत्रपात था । यह जीवन था पूर्ण एवं कठोर नियंत्रण का यदि बालक इस जीवन के आदर्शों को भली-भाँति आत्मसात् कर उनके अनुसार साधना कर लेता था तो वह प्रकाण्ड विद्वान एवं सफल सामाजिक नागरिक बन जाता था । इस प्रकार उपनयन संस्कार का आदर्श अत्यन्त उच्चकोटि का था ।

उसके जीवन में परिष्कार एवं निखार आता था । वह अपनी उन्नति के साथ ही साथ परिवार एवं समाज की उन्नति करता था तथा धर्मसंगत जीवन व्यतीत करते हुए अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता था ।

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मनुष्य जीवन के 16 संस्कार कौन से है? जाने सोलह संस्कार के नाम अर्थसहित

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आज हम आपको 16 संस्कार के नाम (16 Sanskar In Hindi) और उनके बारे में विस्तार से बताएँगे। सनातन धर्म में मनुष्य जीवन के 16 संस्कार माने गए हैं। यह संस्कार एक व्यक्ति के अपनी माँ के गर्भ से शुरू होकर उसकी मृत्यु तक होते हैं। इन्हीं संस्कारों के माध्यम से उसे अपने जीवन में आगे बढ़ना होता है तथा समाज में स्वयं को ढालना होता है। सोलह संस्कारों का एक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है।

हमारे ऋषि मुनियों ने सदियों पूर्व मनुष्य के जीवन का गहन अध्ययन कर इन 16 संस्कारों का क्रम बताया और उनकी व्याख्या की। इसके बाद से ही हर सनातनी के लिए इनका पालन करना सुनिश्चित किया गया। इसलिए आज हम आपको हिंदू धर्म के सोलह संस्कार के नाम (Solah Sanskar) और उनके बारे में संक्षिप्त परिचय देंगे। आइए जानते हैं।

16 Sanskar In Hindi | 16 संस्कार के नाम

क्या आप जानते हैं कि हमारा जन्म होने से पहली ही 3 संस्कारों को कर लिया जाता है जिसका दायित्व हमारे माता-पिता पर होता है । इसी के साथ ही एक संस्कार हमारी मृत्यु के पश्चात किया जाता है जिसका दायित्व हमारे पुत्रों या रिश्तेदारों पर होता है। केवल 12 संस्कारों को ही हम अपने लिए कर पाते हैं। ऐसे में पहले आप इन 16 संस्कारों का क्रम (16 Sanskar) जान लीजिए।

Solah Sanskar

  • गर्भाधान संस्कार
  • पुंसवन संस्कार
  • सीमंतोन्नयन संस्कार
  • जातकर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्क्रमण संस्कार
  • अन्नप्राशन संस्कार
  • मुंडन / चूड़ाकर्म संस्कार
  • कर्णभेद संस्कार
  • विद्यारंभ संस्कार
  • उपनयन/ यज्ञोपवित संस्कार
  • वेदारंभ संस्कार
  • केशांत संस्कार
  • समावर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अंत्येष्टि संस्कार

इस तरह से आपने सोलह संस्कार के नाम (Solah Sanskar) जान लिए हैं । इसमें से हरेक संस्कार का अपना महत्व व उपयोगिता होती है । पहले के समय में मनुष्य के द्वारा सभी सोलह संस्कारों का पालन किया जाता था लेकिन समय-समय के साथ-साथ और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण इन संस्कारों का महत्व कम होता जा रहा है। ऐसे में आज हम 16 संस्कार का वर्णन करने जा रहे हैं ताकि आपको इनके बारे में विस्तार से जानकारी मिल सके।

#1. गर्भाधान संस्कार

इस संस्कार के माध्यम से एक व्यक्ति के जीवन की नींव रखी जाती है। एक पति-पत्नी के बीच उचित समय पर तथा उचित तरीके से किया गया यौन संबंध तथा एक नए जीव की उत्पत्ति का बीज महिला के गर्भ में बोना ही इस संस्कार का मूल है। सामान्यतया इसके बारे में बात करना उचित नहीं समझा जाता है लेकिन शास्त्रों में इस प्रक्रिया की महत्ता को देखकर इसके बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है।

इस संस्कार के माध्यम से ही भविष्य के मनुष्य की नींव पड़ती है। इसलिए इस संस्कार के नियमों के द्वारा एक स्त्री का गर्भ धारण करना गर्भाधान संस्कार के अंतर्गत आता है।

#2. पुंसवन संस्कार

यह संस्कार गर्भाधान के तीन माह के पश्चात किया जाता है क्योंकि इस समय तक एक महिला के गर्भाधान करने की पुष्टि हो चुकी होती है। इसके पश्चात उस महिला को अपने आचार-व्यवहार, खानपान, रहन-सहन इत्यादि में परिवर्तन लाना होता है तथा कई चीज़ों का त्याग भी करना पड़ता है।

इस संस्कार के माध्यम से वह गर्भ में अपने शिशु की रक्षा करती है तथा उसे शक्तिशाली तथा समृद्ध बनाने में अपना योगदान देती है। 16 संस्कार (16 Sanskar In Hindi) में यह संस्कार बहुत महत्वपूर्ण होता है। यदि इसका सही से पालन किया जाए तो शिशु का ना केवल अच्छे से विकास होता है बल्कि यह आजीवन उसके काम आता है।

#3. सीमंतोन्नयन संस्कार

यह संस्कार गर्भाधान के सातवें से नौवें महीने में किया जाता है। गर्भावस्था की तीसरी तिमाही तक एक शिशु का अपनी माँ के गर्भ में इतना विकास हो चुका होता है कि वह सुख-दुःख की अनुभूति कर सकता है, बाहरी आवाज़ों को समझ सकता है तथा उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है। इस अवस्था तक उसमें बुद्धि का भी विकास हो चुका होता है।

इसलिए इस संस्कार के द्वारा उस महिला को धार्मिक ग्रंथों, कथाओं, सुविचारों का अध्ययन करने को कहा जाता है जिसे उसे इस समय ग्रहण करना चाहिए। इसके द्वारा वह गर्भ में ही अपने शिशु को अच्छे संस्कार दे सकती है। इसका एक उदाहरण अभिमन्यु के द्वारा अपनी माँ सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह को भेदने का ज्ञान लेने का मिलता है।

#4. जातकर्म संस्कार

यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के तुरंत बाद किया जाता है। चूँकि एक शिशु नौ माह तक अपनी माँ के गर्भ में रहता है तथा जन्म लेने के पश्चात उसकी गर्भ नलिका काटकर माँ से अलग कर दिया जाता है। अब उसे स्वतंत्र रूप से वायु में साँस लेना होता है तथा दूध पीना होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसके मुँह में ऊँगली डालकर बलगम को निकाला जाता है ताकि वह अच्छे से साँस ले सके।

इसी के साथ उसे हाथ की तीसरी ऊँगली या सोने की चम्मच से शहद घी चटाया जाता है जिससे उसके वात, पित्त के दोष दूर होते हैं। माँ के द्वारा अपने शिशु को प्रथम बार दूध पिलाना भी इसमें सम्मिलित है।

#5. नामकरण संस्कार

सोलह (16 Sanskar) में से यह संस्कार सामान्यतया शिशु के जन्म के दस दिन के पश्चात किया जाता है जिसमें घर में हवन यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से उसके जन्म लेने के समय, तिथि इत्यादि को ध्यान में रखकर उसकी कुंडली का निर्माण किया जाता है तथा उसी के अनुसार उसका नामकरण किया जाता है।

यह नाम उसके गुणों के आधार पर दिया जाता है जो जीवनभर उसकी पहचान बना रहता है। एक मनुष्य के अंदर भेद स्थापित करने तथा उसकी पहचान बनाने के लिए नामकरण की अत्यधिक आवश्यकता थी। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसका उचित नाम रखा जाता है।

#6. निष्क्रमण संस्कार

शिशु को उसके जन्म से लेकर चार मास तक घर में रखा जाता है तथा कहीं बाहर नहीं निकाला जाता है। इस समय तक वह अत्यधिक नाजुक होता है तथा बाहरी वायु, कणों और वातावरण के संपर्क में आकर उसको संक्रमण होने की आशंका बनी रहती है।

इसलिए जब वह चार मास का हो जाता है तब निष्क्रमण संस्कार के माध्यम से प्रथम बार उसे घर से बाहर निकाला जाता है तथा सूर्य, जल व वायु देव के संपर्क में लाकर उनसे अपने शिशु के कल्याण की प्रार्थना की जाती है। इस संस्कार के पश्चात एक शिशु बाहरी दुनिया के संपर्क में रहने लायक बन जाता है।

#7. अन्नप्राशन संस्कार

जन्म से लेकर छह माह तक एक शिशु पूर्ण रूप से अपनी माँ के दूध पर ही निर्भर होता है तथा इसके अलावा उसे कुछ भी खाने पीने को नहीं दिया जाता है। छह माह का होने के पश्चात उसे धीरे-धीरे माँ के दूध के अलावा अन्य भोजन तरल या अर्धठोस रूप में देने शुरू कर दिए जाते हैं जैसे कि दाल या चावल का पानी, दलिया इत्यादि।

शिशु को माँ के दूध के अलावा प्रथम बार भोजन देने की प्रक्रिया को ही अन्नप्राशन संस्कार कहा गया है। यह संस्कार इसलिए भी आवश्यक होता है क्योंकि माँ के स्तनों में भी दूध कम होने लगता है। इसलिए धीरे-धीरे उसे माँ के स्तन से दूर किया जाता है जिससे कि वह भोजन करने की आदत डाल सके। इसलिए यह संस्कार शिशु व माँ दोनों के स्वास्थ्य के लिए उचित रहता है।

#8. मुंडन / चूड़ाकर्म संस्कार

सोलह संस्कार (Solah Sanskar) में से यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले या तीसरे वर्ष में किया जाता है। इसमें उसके अपनी माँ के गर्भ से मिले सिर के बालों को हटा दिया जाता है। शिशु को जन्म के समय माँ के गर्भ से कई प्रकार की अशुद्धियाँ मिलती है तथा इस संस्कार के द्वारा उन अशुद्धियों को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाता है।

जो केश शिशु को जन्म से मिले होते हैं उनमें कई तरह के जीवाणु तथा विषाणु व्याप्त होते हैं किंतु एक वर्ष से पहले उसका मुंडन नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी खोपड़ी अत्यधिक नाजुक होती है। इसलिए उसके जन्म के एक वर्ष के पश्चात इस संस्कार को करना उचित माना गया है।

#9. कर्णभेद संस्कार

यह संस्कार प्राचीन समय में बालक व बालिका में समान रूप से किया जाता था किंतु वर्तमान में अधिकतर बालिकाओं में ही यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार उस बालक की विद्या को आरंभ करने से पहले किया जाता है। इस संस्कार को उसके जन्म के तीसरे वर्ष में करना होता है जिसमें उसके कान के उचित स्थान पर भेदन करके कुंडल/ बालि इत्यादि पहनाई जाती है।

इस संस्कार को करने से उसके मस्तिष्क की ओर जाने वाली नसों पर दबाव पड़ता है जिससे उसके रक्त संचार, सीखने की शक्ति, याददाश्त, मानसिक शक्ति इत्यादि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

#10. विद्यारंभ संस्कार

यह संस्कार एक बालक के जन्म के पांचवें से आठवें वर्ष में शुरू किया जाता है। एक समाज में विद्या को ग्रहण करना अति-आवश्यक होता है तभी एक सुशिक्षित तथा संस्कारी समाज का निर्माण संभव है अन्यथा चारों ओर अराजकता व्याप्त होने का डर रहता है। किसी भी शिक्षा को ग्रहण करने के लिए पहले एक बालक को अक्षर तथा भाषा का ज्ञान करवाना अति-आवश्यक होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसे भाषा, अक्षर, लेखन तथा शुरूआती ज्ञान दिया जाता है।

#11. उपनयन/ यज्ञोपवित संस्कार

यह संस्कार एक बालक के आठवें से बारहवें वर्ष के अन्तराल में किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से एक गुरु उस बालक की परीक्षा लेते हैं तथा उसे जनेऊ धारण करवा कर कठिन प्रतिज्ञा दिलवाई जाती है। इस संस्कार को करने के पश्चात उस बालक पर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसके माता-पिता का अधिकार समाप्त हो जाता है तथा उसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में रहना होता है। एक तरह से गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए यह संस्कार किया जाता है जिसमें एक गुरु उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

#12. वेदारंभ संस्कार

यज्ञोपवित संस्कार के तुरंत बाद वेदारंभ संस्कार शुरू हो जाता है जिसमें वह बालक अपने गुरु के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करते हुए वेदों का अध्ययन करता है। इसमें उसे भूगोल, ज्योतिष, चिकित्सा, धर्म, संस्कृति, नियम, राजनीति इत्यादि की शिक्षा दी जाती है।

इसी के साथ उसे आश्रम की सफाई, भिक्षा मांगना, गुरु की सेवा करना, भूमि पर सोना इत्यादि कठिन नियमों का पालन करना होता है। आज के समय में गुरुकुल की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है और ना ही वेदों का अध्ययन करवाया जाता है। ऐसे में 16 संस्कार (16 Sanskar In Hindi) में इस संस्कार का महत्व बहुत कम हो गया है।

#13. केशांत संस्कार

जब गुरु को यह विश्वास हो जाता है कि उसका शिष्य अब पूरी तरह से पारंगत हो चुका है तब वे उसका केशांत संस्कार करते हैं। दरअसल एक शिष्य को गुरुकुल में रहते हुए पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसलिए उसके सिर के बाल तथा दाढ़ी को कटवाना वर्जित होता है किंतु जब उसकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो एक बार फिर से उसका मुंडन किया जाता है तथा प्रथम बार दाढ़ी बनाई जाती है। यह संस्कार एक तरह से उसकी शिक्षा के पूरी होने का संकेत होता है।

#14. समावर्तन संस्कार

इस संस्कार का अर्थ होता है पुनः अपने घर को लौटना। एक बालक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पच्चीस वर्ष की आयु तक अपने गुरुकुल में ही निवास करता है तथा उसके आसपास सभी सज्जन पुरुष तथा उत्तम वातावरण होता है। शिक्षा के पूर्ण होने के पश्चात उसे पुनः अपने समाज में लौटना होता है।

इसलिए इससे पहले उसका समाज में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से उसके गुरु द्वारा उसका समावर्तन संस्कार किया जाता है जिसमें उसे समाज में ढालने का प्रयास किया जाता है। इस संस्कार के पश्चात एक मनुष्य गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर पुनः अपने घर व समाज को लौटता है तथा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है।

#15. विवाह संस्कार

शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अब वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर चुका होता है इसलिए अब उसका पूरे विधि विधान से विवाह करवाया जाता है। इसमें ब्रह्म विवाह सबसे उत्तम होता है तथा इसके अलावा भी सात अन्य प्रकार के विवाह होते हैं। विवाह संस्कार को करके वह मनुष्य अपने पितृ ऋण से मुक्ति पाता है।

वह इसलिए क्योंकि विवाह करने के पश्चात वह संतान को जन्म देगा तथा सृष्टि को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देगा। इसलिए इस संस्कार को करने के पश्चात उसकी पितृ ऋण से मुक्ति हो जाती है। सोलह संस्कारों (16 Sanskar) में से इस संस्कार का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जा रहा है। सभी ने विवाह संस्कार का सही से पालन करने की बजाए इसे एक पार्टी और बड़े आयोजन के तौर पर मनाना शुरू कर दिया है।

#16. अंत्येष्टि संस्कार

यह संस्कार मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार होता है जो उसकी देह-त्याग के पश्चात उसके पुत्रों/ भाई/ परिवार जनों के द्वारा किया जाता है। हमारा शरीर पंचभूतों से बना होता है जो हैं आकाश, पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि। इसलिए एक मनुष्य के देह-त्याग के पश्चात उसके शरीर को उन्हीं पांच तत्वों में मिलाना आवश्यक होता है जिससे कि उसकी आत्मा को शांति मिल सके। इसलिए यह संस्कार अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है अन्यथा उसकी आत्मा को कभी शांति नहीं मिलती है।

इस तरह से आज आपने 16 संस्कार के नाम (16 Sanskar In Hindi) और उनकी परिभाषा जान ली है । आज के समय में मुख्यतया जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णभेद, विवाह और अंत्येष्टि संस्कार ही किए जाते हैं। इनमें से भी कुछ को सही नियमों के अनुसार नहीं किया जाता है। जैसे कि नामकरण और विवाह संस्कार नियमानुसार करने की बजाए एक विशाल आयोजन बनकर रह गए हैं।

16 संस्कार से संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न: 16 प्रकार के संस्कार कौन कौन से हैं?

उत्तर: इस लेख में हमने विस्तार से 16 प्रकार के संस्कारों की व्याख्या की है । इनकी शुरुआत गर्भाधान संस्कार से होती है और अंत्येष्टि संस्कार से इनका अंत होता है । इनमें जन्म से पहले तीन संस्कार कर दिए जाते हैं तो वहीं मृत्यु के पश्चात एक संस्कार होता है।

प्रश्न: भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार का प्रथम संस्कार कौन सा है?

उत्तर: भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार का प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार होता है । यह संस्कार व्यक्ति विशेष के जन्म से पहले ही उसके माता-पिता के द्वारा किया जाता है ।

प्रश्न: हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से चौथा संस्कार कौन सा है?

उत्तर: हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से चौथा संस्कार जातकर्म संस्कार होता है । यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के बाद सबसे पहले किया जाता है । शिशु की गर्भनाल काटना, उसके मुँह को साफ करना, शहद चटाना और माँ का दूध पिलाना इस संस्कार में आता है ।

प्रश्न: मृत्यु के बाद संस्कार कितने होते हैं?

उत्तर: मृत्यु के बाद एक ही संस्कार होता है जिसे अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है । यह व्यक्ति विशेष के बड़े पुत्र के द्वारा किया जाता है । यदि पुत्र नहीं है तो भाई, पिता, पोता या अन्य करीबी और पिता की ओर से पुरुष रिश्तेदार के द्वारा इसे किया जाता है ।

प्रश्न: पत्नी का अंतिम संस्कार कौन करता है?

उत्तर: पत्नी का अंतिम संस्कार करने का अधिकार सर्वप्रथम उसके पति को होता है । यदि पति जीवित नहीं है तो उसके पुत्र यह अंतिम संस्कार करते हैं । पुत्र भी नहीं है तो पति के परिवार में से सबसे करीबी पुरुष रिश्तेदार के द्वारा यह संस्कार किया जाता है ।

नोट: यदि आप वैदिक ज्ञान 🔱, धार्मिक कथाएं 🕉️, मंदिर व ऐतिहासिक स्थल 🛕, भारतीय इतिहास, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य 🧠, योग व प्राणायाम 🧘‍♂️, घरेलू नुस्खे 🥥, धर्म समाचार 📰, शिक्षा व सुविचार 👣, पर्व व उत्सव 🪔, राशिफल 🌌 तथा सनातन धर्म की अन्य धर्म शाखाएं ☸️ (जैन, बौद्ध व सिख) इत्यादि विषयों के बारे में प्रतिदिन कुछ ना कुछ जानना चाहते हैं तो आपको धर्मयात्रा संस्था के विभिन्न सोशल मीडिया खातों से जुड़ना चाहिए । उनके लिंक हैं:

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  • सूर्य नमस्कार के लाभ

essay on sanskar in hindi language

लेखक के बारें में: कृष्णा

संस्कार को लेकर बहुत अच्छी जानकारी दी है। इससे पहले कभी पढ़ने को नहीं मिली।

आपका बहुत-बहुत आभार हरीश जी

राम राम जी…. मैं इन सभी 16 संस्कारों को खोज रहा था, जिनके बारे में मुझे जानना चाहिए था। आपका बहुत बहुत धन्यवाद…सनातन धर्म बहुत महान है इसमें हर एक विषय को अच्छे से बताया जाता है…राम राम जी

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16 Sanskar of Hindus in Hindi - हिंदू धर्म के 16 संस्कार

16 Sanskar of Hindus in Hindi – हिंदू धर्म के 16 संस्कार

Table of Contents

हिंदू धर्म के 16 संस्कार

संस्कार कर अर्थ: meaning of sanskar, संस्कार का उद्देश्य: purpose of sanskar, संस्कारों का उदय: origin of sanskar, संस्कारों की संख्या: number of sanskar, सोलह संस्कार विधियां: sanskar methods, अध्यात्मिक महत्व: spiritual importance, संस्कारों का भौतिक उद्देश्य: materialistic aim, वैज्ञानिक विवेचना: scientific importance,   गर्भाधान संस्कार ( garbhadhan),   पुंसवन संस्कार ( punsvan),   सीमंतोन्यन संस्कार ( simatonyan),   जातकर्म संस्कार ( jaatkarma),   नामकरण संस्कार ( naamkaran), वेदारम्भ संस्कार ( vedarambh),   समावर्तन संस्कार ( samavartan),   केशांत संस्कार ( keshant), विवाह संस्कार ( vivah),   अंत्येष्टि संस्कार ( antyeshthi).

मृत्यु के बाद शरीर को अग्नि को समर्पित करने के लिए यह  संस्कार किया जाता है। किसी भी व्यक्ति का यह आखिरी संस्कार होने के कारण इसे  अंतिम संस्कार भी कहा जाता है। इस संस्कार का दार्शनिक पहलु यह है कि जिन पांच  तत्वों से शरीर बना है उसी में शरीर को पुन: मिला देना है। इस संस्कार में आत्मा  छोड़ चुके शरीर को उस व्यक्ति का सबसे प्रिय व्यक्ति ही मुखाग्नि देता है।

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जानें क्या है 16 संस्कार और क्या है इनका महत्व

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में 16 संस्कारों का विशेष महत्व होता है.

वैज्ञानिक आधार होने के कारण कई युग बीत जाने के बाद भी हिंदू धर्म (Hindu Religion) का प्रभुत्व समाप्त नहीं हुआ है. हिंदू ...अधिक पढ़ें

  • Last Updated : April 21, 2022, 10:58 IST
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हिंदू धर्म, वैज्ञानिक आधार और प्राचीन मान्यताओं पर आधारित शाश्वत धर्म है. ऐसा माना जाता है कि हिंदू धर्म (Hindu Religion) की स्थापना प्राचीन मुनियों और देवताओं (Gods) के द्वारा की गई है. वैज्ञानिक आधार होने से के कारण कई युग बीत जाने के बाद भी हिंदू धर्म का प्रभुत्व समाप्त नहीं हुआ. हिंदू धर्म ग्रंथों में जन्म (Birth) से लेकर मृत्यु तक के 16 संस्कारों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है.16 संस्कारों से मनुष्य के पाप और अज्ञान को दूर करके विचारों और ज्ञान को बढ़ाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में 16 संस्कारों का विशेष महत्व होता है. तो चलिए आज हम आपको बताते हैं कि क्या है 16 संस्कार और इन का हमारे जीवन में महत्व-

सनातन हिन्दू धर्म के 16 संस्कार और उनका महत्त्व- 1. गर्भाधान संस्कार विवाहित स्त्री जब शुद्ध विचारों और शारीरिक रूप से स्वस्थ होकर गर्भधारण करती है तब उसे स्वस्थ और बुद्धिमान शिशु की प्राप्ति होती है. इस संस्कार से हिन्दू धर्म यह सिखाता है कि विवाहित स्त्री-पुरुष का मिलन पशुवत न होकर अपनी वंशवृद्धि के लिए होना चाहिए.

2. पुंसवन संस्कार विवाहित स्त्री और पुरुष के मिलन से जब स्त्री गर्भधारण कर लेती है. गर्भ की रक्षा के लिए स्त्री और पुरुष मिलकर प्रतिज्ञा लेते हैं कि वह ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे गर्व को नुकसान हो.

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार इस संस्कार को गर्भधारण करने के बाद 30 या 2 महीने में किया जाता है. एक संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भ की शुद्धि करना है. इस संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे बच्चे के अच्छे गुण, स्वभाव और कर्मों का विचार किया जाता है. इन सबके लिए गर्भ में पल रहे बच्चे की माता को उसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए.

यह भी पढ़ें –  मां लक्ष्मी को खुश करने के लिए करें सूखी तुलसी पत्ती के ये उपाय

4. जातकर्म संस्कार शिशु के जन्म के बाद इस संस्कार को किया जाता है. यह संस्कार गर्भ में उत्पन्न दोषों को खत्म करने वाला होता है. इस संस्कार में नवजात बच्चे को अनामिका उंगली या फिर सोने की चम्मच से शहद और घी चटाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि घी आयु बढ़ाने वाला और पित्त व वात नाशक होता है और शहद कफ नाशक होता है.

5. नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाना बहुत जरूरी है. किसी पंडित या ज्योतिष के द्वारा बच्चे का नाम सुझाया जाता है. उसके बाद उस बच्चे के नए नाम से सभी लोग उसके सुख समृद्धि की कामना करते हैं.

6. निष्क्रमण संस्कार शास्त्र ज्ञाताओं के द्वारा बताया गया है कि इस संस्कार से बच्चे की आयु की वृद्धि की कामना की जाती है. यह संस्कार जन्म के चौथे या छठे माह में किया जाना चाहिए.

7. अन्नप्राशन संस्कार अन्नप्राशन संस्कार के द्वारा बच्चे के उन सभी दोषों का नाश हो जाता है जो दोष माता के पेट में रहते हुए शिशु में आ जाते हैं. इस संस्कार के माध्यम से नवजात बच्चे को पहली बार अन्न खिलाया जाता है और उसकी लंबी आयु की कामना की जाती है.

8. मुंडन संस्कार इस संस्कार को वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है. इस संस्कार में बच्चे के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें, सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बाल उतारे जाते हैं. इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु को बल, आयु, तेज प्रदान करना होता है.

9. कर्णवेधन संस्कार इस संस्कार में बच्चे के कान छेदे जाते हैं. इस संस्कार को शिशु के जन्म के बाद 6 माह से लेकर 5 वर्ष की आयु तक के बीच में किया जा सकता है.

10. उपनयन संस्कार इस संस्कार को यगोपवित संस्कार के नाम से भी जाना जाता है. इस संस्कार में बालक को पूजा और विधि विधान के साथ जनेऊ धारण करवाया जाता है. जनेऊ में 3 धागे होते हैं जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक माना जाता है. प्राचीन काल में इस संस्कार के बाद ही किसी बालक को वेदों के अध्ययन का अधिकार प्राप्त होता था.

11. विद्यारंभ संस्कार प्राचीन काल में इस संस्कार संस्कार से शिशु की शिक्षा प्रारंभ कराई जाती थी. इसके लिए किसी विद्वान द्वारा शुभ मुहूर्त बताया जाता था.

12. केशांत संस्कार प्राचीन काल में गुरुकुल में रहते हुए जब बच्चे की शिक्षा पूर्ण हो जाती थी, तब गुरुकुल में ही बच्चे का केशांत संस्कार करवाया जाता था. इस संस्कार में बच्चे को पहली बार दाढ़ी बनाने की स्वीकृति दी जाती थी. इस संस्कार को गोदान संस्कार के नाम से भी जाना जाता है.

13. समावर्तन संस्कार शिक्षा के पूर्ण होने के बाद जब कोई बालक अपने गुरु की इच्छा से ब्रह्मचर्य के बाद अपने घर लौटता है तो उसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है. इस संस्कार को प्राचीन समय में दूध वेदस्नान संस्कार भी कहा जाता था. इस संस्कार के बाद एक ब्रह्मचारी बालक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर लेता है.

14. विवाह संस्कार विवाह संस्कार के द्वारा पुरुष, स्त्री को सभी देवी देवताओं की पूजा आराधना के बाद अपने घर ले आता है और उसके साथ धर्म का पालन करते हुए जीवन यापन करता है.

यह भी पढ़ें –  गुरुवार के दिन ऐसे करें भगवान विष्णु की पूजा, रखें इन बातों का विशेष ध्यान

15. विवाह अग्नि संस्कार विवाह संस्कार के समय जब होम आदि किया जाता है इसे विवाह अग्नि कहा जाता है. विवाह के बाद वर और वधू इसी अग्नि को अपने घर में लाकर किसी पवित्र स्थान पर प्रज्वलित करते हैं.

16. अंत्येष्टि संस्कार यह संस्कार व्यक्ति के जीवन का अंतिम संस्कार होता है. इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ, आज भी हिंदू समाज में शव यात्रा के आगे घर से ही अग्नि जला कर ले जाई जाती है और इसी अग्नि से चिता प्रज्वलित की जाती है.  (Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. Hindi news 18 इनकी पुष्टि नहीं करता है. इन पर अमल करने से पहले संबधित विशेषज्ञ से संपर्क करें)

Tags: Dharma Aastha , Religion

संस्कार पर निबंध, कविता व् नारे Sanskar essay, poem, slogan in hindi

Sanskar ka mahatva in hindi.

दोस्तों कैसे हैं आप सभी, आज हम आपके लिए लाए हैं संस्कार पर हमारे द्वारा लिखित निबंध चलिए पढ़ते हैं हमारे आज के इस निबंध को

संस्कार हमारे जीवन में काफी महत्वपूर्ण होते हैं, संस्कार मनुष्य को आदर्श बनाते हैं। धर्मो एवं पुराणों में संस्कारों को विशेष महत्व दिया गया है। हम जीवन में जो भी कार्य एवं व्यवहार करते हैं, हम जिस तरह से करते हैं उन्हें ही हम संस्कार कहते हैं। संस्कार हम अपने परिजनों से सीखते हैं, संस्कार सीखकर हम अपने परिवार और समाज में अच्छी तरह से जीवन यापन करते हैं।

sanskar essay in hindi

मनुष्य और जीव-जंतुओं में यही अंतर है की मनुष्य अपना जो भी कार्य करता है वह संस्कारों के बंधन में बंधकर करता है।संस्कारों की वजह से मनुष्य के कार्य सही तरह से हो पाते हैं और कई लाभ हमे प्राप्त होते है। हमारे समाज में संस्कार इसलिए बनाए गए जिससे हम हमारे देश और समाज में एक अच्छी जिंदगी यापन कर सकें।

हमारे हिंदू धर्म में कई तरह के संस्कार होते हैं जिनमें से कुछ संस्कार हम यहां पर प्रस्तुत करेंगे। जब हमारे परिवार में कोई बच्चा जन्म लेता है तो हम कई तरह के संस्कार करते हैं, एक संस्कार जिसको हम नामकरण भी कहते हैं इस संस्कार में हम बच्चे का नामकरण करते हैं, नाम की वजह से ही उस बच्चे को परिवार और समाज में जाना जाता है। संस्कार काफी महत्वपूर्ण होता है संस्कार के बाद ब्राह्मणों को भोजन भी कराया जाता है, यह संस्कार वास्तव में हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण होता है।

निष्क्रमण संस्कार में पहली बार बच्चे को घर से बाहर निकाला जाता है, यह संस्कार लगभग तीसरे या चौथे महीने में होता है। हिंदू समाज में ऐसे संस्कार काफी प्रचलन में है। आज भले ही आधुनिकता के इस दौर में कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं लेकिन फिर भी आज संस्कार हमारे समाज में काफी लोग मानते हैं। बच्चा जब बड़ा होता है तो उसके बाल काटे जाते हैं यह भी हमारे समाज में एक संस्कार है जिसको चूड़ाकरण के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार को लेकर हमारे समाज में कई तरह की बातें प्रसिद्ध भी हैं।

इसके बाद जब बच्चा शिक्षा प्राप्त करने योग्य हो जाता है तब विद्यारंभ करने का संस्कार आरंभ होता है इस संस्कार में बच्चे को अपनी मातृभाषा का पूरी तरह से ज्ञान कराया जाता है। विद्या आरंभ करने का यह संस्कार प्राचीन काल से अभी तक चला रहा है लेकिन कई तरह के बदलाव आज हमें इस संस्कार में देखने को मिलते हैं।पहले के जमाने में बच्चे गुरु के पास में रहकर भी विद्या ग्रहण करते थे । लगभग 16 साल की उम्र तक वह विद्या ग्रहण संस्कार में रहता हैं लेकिन प्राचीन काल से अभी तक इस संस्कार में भी काफी परिवर्तन आ चुके है।

प्राचीन काल में जब बच्चा शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आता था तब भी एक संस्कार होता था। जब वह बच्चा युवक बन जाता है तब विवाह नामक संस्कार होता है, हिंदू समाज का बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार होता है इस संस्कार में युवक की एक युवती के साथ में विवाह रचाया जाता है, यह दोनों के सहयोग से पूर्ण होता है इस विवाह संस्कार में कई तरह के रीति रिवाज होते हैं इसके बाद युवा युवती अपने जीवन को एक नए ढंग से जीना शुरू कर देते हैं।

मनुष्य के जीवन के अंत में एक संस्कार होता है जिसे हम अंतिम संस्कार कहते हैं जिसमें मनुष्य को भी रीति रिवाजों के अनुसार मृत्यु शैया पर लेटा दिया जाता है और कई तरह के संस्कार किए जाते हैं जिससे वह मनुष्य मोक्ष पा सके। संस्कारों का महत्व

संस्कार हमारे जीवन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, संस्कार ही हमें ज्ञानवान बनाते हैं एवं हमारी आत्मा की शुद्धि करते हैं। मनुष्य का विकास भी संस्कारों के माध्यम से ही होता है संस्कारों के माध्यम से ही मनुष्य अपने जीवन को एक सुव्यव्यवस्थित तरीके से जी पाता है। मनुष्य समाज में संस्कारों के माध्यम से एक आदर्श भूमिका निभाता है और जीवन में आगे बढ़ता चला जाता है। संस्कारों के बिना मनुष्य पशु के समान व्यवहार करता है।

आज हमारे भारत देश में संस्कारों का काफी महत्व है लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो इन संस्कारों को नहीं मानते और इनके खिलाफ होते हैं ऐसे लोग जीवन में काफी परेशानियों का सामना करते हैं और जीवन में कुछ खास, कुछ बड़ा नहीं कर पाते क्योंकि वास्तव में संस्कारों की वजह से ही मनुष्य मनुष्य है। संस्कारों के बिना मनुष्य पशु की तरह व्यवहार करने लगता है, हमारे लिए संस्कारों का बड़ा ही महत्व है।

poem on sanskar in hindi

संस्कारो से देश में बदलाव होता है इस कलयुग में भी देश महान होता है मनुष्य की धरोहर संस्कार होते हैं हम सबके लिए संस्कार बड़े जरूरी होते हैं

संस्कारों की डोर को ना तोड़ना तुम कभी संस्कारों को ना तुम भूलना कभी संस्कारों से मनुष्य मनुष्य होता है अच्छाई के साथ वो जीवन में आगे बढ़ता है

संस्कारों से जीवन सुव्यवस्थित चलता है कई परेशानियों से मनुष्य मुक्त होता है संस्कारों से देश में बदलाव होता है इस कलयुग में भी देश महान होता है

slogan on sanskar in hindi

  • संस्कारों के बंधन में बंधते चलें, जीवन में हम आगे बढ़ते चढ़े
  • संस्कार जीवन के लिए जरूरी है, हम सबके लिए ये जरूरी है
  • संस्कारों के बंधन में हम बंधे चलें, हर परिस्थिति का सामना हम करते चलें
  • संस्कारों से जीवन में सुधार आता है, जीवन में बहुत ही निखार आता है
  • संस्कार दूर से ही दिख जाते हैं, उनसे हर किसी के जीवन को हम समझ जाते हैं
  • संस्कारों से इंसान की पहचान होती है इस दुनिया में भारत की शान होती है
  • भारत देश में संस्कार सबसे बढ़कर हैं, हर किसी के लिए संस्कार सबसे बढ़कर हैं
  • वैवाहिक संस्कार हर किसी के जीवन में आते हैं, एक दूसरे को बंधन में बांधते जाते हैं
  • नामकरण संस्कार से बच्चे की पहचान होती है, देश दुनिया में उसकी पहचान होती है
  • संस्कारों के बगैर जीवन अधूरा है इनके बिना जीवन अधूरा है।
  • चरित्र निर्माण पर निबंध charitra nirman essay in hindi

दोस्तों हमारे द्वारा लिखा संस्कारों पर यह आर्टिकल Sanskar essay, poem, slogan in hindi आपको कैसा लगा, यदि आपको ये आर्टिकल पसंद आया हो तो इसे अपने दोस्तों में शेयर जरूर करें और हमें कमेंट्स के जरिए बताएं कि यह लेख आपको कैसा लगा धन्यवाद।

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kamlesh kushwah

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  •   Monday, August 26, 2024

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क्या हैं 16 हिन्दू संस्कार | 16 Sanskar in Hindi

प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। मनुष्य जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं आइये जानते है हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार…

1. गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar):

यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।

ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है।

2. पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar):

गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar)

यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।

4. जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar):

बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।

5.नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar):

शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।

जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है

6. निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar): 

निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

7. अन्नप्राशन संस्कार ( Annaprashana):

यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।

8. मुंडन संस्कार ( Mundan Sanskar):

जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।

9. विद्या आरंभ संस्कार ( Vidhya Arambha Sanskar ):

इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।

10. कर्णवेध संस्कार ( Karnavedh Sanskar):

इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।

11. उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार (Yagyopaveet Sanskar):

उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।

जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।

12. वेदारंभ संस्कार (Vedaramba Sanskar):

इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।

13. केशांत संस्कार (Keshant Sanskar):

केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।

14. समावर्तन संस्कार   (Samavartan Sanskar):

समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।

वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है l

15. विवाह संस्कार ( Vivah Sanskar):

यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है … हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l

16. अंत्येष्टी संस्कार (Antyesti Sanskar):

अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार।

शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।

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  • Post published: April 24, 2021
  • Post category: Sanskar

16 Sanskar in Hinduism: Importance & Objectives in Hindi

संस्कृति वही है जो मानव के तन, मन, बुद्धि को, विचार और आचरण को सुसंस्कारित करे । भारतीय संस्कृति में मानव-समाज की परिशुद्धि के लिए, उसके जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक के लिए सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गयी है । गर्भाधान संस्कार से लेकर दाह संस्कार तक के संस्कारों की इतनी सुंदर, उज्ज्वल और सुदृढ़ व्यवस्था अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है ।

सुसंस्कार-सिंचन की सुंदर व्यवस्था ‘संस्कार’ का अर्थ है किसी वस्तु को और उन्नत, शुद्ध, पवित्र बनाना, उसे श्रेष्ठ रूप दे देना। सनातन वैदिक संस्कृति में मानव-जीवन को सुसंस्कारित करने के लिए सोलह संस्कारों का विधान है । इसका अर्थ यह है कि जीवन में सोलह बार मानव को सुसंस्कारित करने का प्रयत्न किया जाता है ।

महर्षि चरक ने कहा है : संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते ।

अर्थात् स्वाभाविक या प्राकृतिक गुण से भिन्न दूसरे उन्नत, हितकारी गुण को उत्पन्न कर देने का नाम ‘संस्कार’ है ।

इस दृष्टि से संस्कार मानव के नवनिर्माण की व्यवस्था है । जब बालक का जन्म होता है, तब वह दो प्रकार के संस्कार अपने साथ लेकर आता है । एक प्रकार के संस्कार वे हैं जिन्हें वह जन्म जन्मांतर से अपने साथ लाता है । दूसरे वे हैं जिन्हें वह अपने माता-पिता के संस्कारों के रूप में वंश-परम्परा से प्राप्त करता है । ये अच्छे भी हो सकते हैं, बुरे भी हो सकते हैं । संस्कारों द्वारा मानव के नवनिर्माण की व्यवस्था में बालक के चारों ओर ऐसे वातावरण का सर्जन कर दिया जाता है जो उसमें अच्छे संस्कारों को पनपने का अवसर प्रदान करे । बुरे संस्कार चाहे पिछले जन्मों के हों, चाहे माता-पिता से प्राप्त हुए हों, चाहे इस जन्म में पड़े हों उन्हें निर्बीज कर दिया जाय। हमारी योजनाएं भौतिक योजनाएँ हैं जबकि संस्कारों की योजना आध्यात्मिक योजना है । हम बाँध बाँधते हैं, नहरें खोदते हैं । जिसके लिए बाँध बाँधे जाते हैं, नहरें खोदी जाती हैं उस मानव का जीवन-निर्माण करना यह वैदिक संस्कृति का ध्येय है ।

संस्कृति के पुनरुद्धारक पूज्य बापूजी सोलह संस्कारों का गूढ़ रहस्य समझाते हुए कहते हैं : “मनुष्य अगर ऊपर नहीं उठता तो नीचे गिरेगा, गिरेगा, गिरेगा ! ऊपर उठना क्या है ? कि तामसी बुद्धि को राजसी बुद्धि करे, राजसी बुद्धि है तो उसको सात्त्विक करे और यदि सात्त्विक बुद्धि है तो उसे अर्थदा, भोगदा, मोक्षदा, भगवद्सदा कर दे। इसलिए जीवात्मा या दिव्यात्मा के माँ के गर्भ में प्रवेश से पूर्व से ही शास्त्रीय सोलह संस्कारों की शुरुआत होती है। गर्भाधान संस्कार, फिर गर्भ में 3 महीने का बच्चा है तो उसका पुंसवन संस्कार होता है, फिर सीमंतोन्नयन संस्कार, जन्मता है तो जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह संस्कार होते हैं… इस प्रकार मृत्यु के बाद सोलहवाँ संस्कार होता है अंत्येष्टि संस्कार । मनुष्य गिरने से बच जाय इसलिए संस्कार करते हैं । और ये सारे संस्कार इस जीव को परम पद पाने में सहायता रूप होते हैं ।”

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संस्कार और भावना ( विष्णु प्रभाकर )

” संस्कार और भावना ” समरी (summary).

“ संस्कार और भावना ” विष्णु प्रभाकर जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध एकांकी है प्रस्तुत एकांकी में एक परिवार का चित्रण किया गया है | संस्कारों की पृष्ठभूमि और भावना के आवेश का द्वंद मार्मिक ढंग से उजागर किया गया है | माँ एकांकी की प्रमुख पात्र है | वह संक्रांति काल की एक हिंदू नारी है जो भारतीय संस्कृति के प्राचीन रीति – रिवाजों से बँधी हुई है | उसके दो पुत्र थे – अविनाश और अतुल | अविनाश बड़ा था और अतुल छोटा | अविनाश ने एक बंगाली लड़की से प्रेम विवाह किया था पर उसकी माँ विजातीय बहू को न अपना सकी | इसका परिणाम यह हुआ कि अविनाश अपनी पत्नी के साथ अलग रहता है | पिछले महीने अविनाश बहुत बीमार रहा | उसे हैजा हो गया था | माँ को इस बात का दु:ख हुआ कि उसका बेटा बहुत बीमार रहा और उसे पता भी न चला जब अविनाश बचपन में कभी बीमार हो जाता था तो वह कई -कई दिनों तक न खाना खाती थी न सोती थी | उसका छोटा बेटा अतुल तथा उसकी पत्नी उमा अविनाश के यहाँ आते-जाते रहते हैं | माँ को यह पता चला कि अविनाश की पत्नी गंभीर रूप से बीमार है तथा उसके बचने की कोई आशा नहीं है अतुल माँ से कहता है कि भाभी ने तो प्राणों की बाजी लगाकर भैया को बचा लिया परंतु उन्हें बचाने की शक्ति भैया में नहीं है यह सुनकर उसके मन में बेटे के प्रति ममता और स्नेह की भावना जाग उठती है | आखिर वह माँ है , माँ की ममता के सामने उसके संस्कार उसके आगे झुकते नजर आते हैं | यहाँ ‘ संस्कार और भावना ‘ का अंतर्द्वंद उभर कर आता है जिसमें ‘भावना ‘ की विजय होती है और माँ सब संस्कारों को तोड़ती हुई अपने बड़े लड़के के घर जाती है |वह अपनी बहू को अपनाने के लिए तैयार हो जाती है अविनाश के घर जाकर चलने की आग्रह करती है तथा इस प्रकार परिस्थितियों से मजबूर होकर संस्कारों की दासता से मुक्त हो जाती है |

एकांकी का उद्देश्य / संदेश

प्रस्तुत एकांकी में संस्कारों की पृष्ठभूमि और भावना के आवेश का द्वंद मार्मिक ढंग से उजागर किया गया है | संक्रांति काल की नारी – माँ के बड़े पुत्र अविनाश ने एक विजातीय बंगाली स्त्री से विवाह किया है जिसके कारण वह अपने परिवार से अलग रहता है | जब माँ को पता चलता है कि उसका बेटा बहुत बीमार रहा , उसे पता भी नहीं चला तो उसके वात्सल्य , ममता एवं पुत्रप्रेम के सामने उसके संस्कार नहीं टिक पाते है और वह संस्कारों की दासता से मुक्त हो जाती है | इसमें नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच संघर्ष और विचारों की विभिन्नता दिखाई गई है जिसमें माँ की ममता पुराने रीति-रिवाजों और परंपराओं पर विजय होती है यह विजय ही एक सुखी परिवार की नींव है |

शीर्षक की सार्थकता

एकांकीकार अपने शीर्षक ‘संस्कार और भावना ‘ को सार्थक करने में सफल हुआ है क्योंकि पूरे एकांकी में संस्कारों और भावनाओं के बीच द्वंद अत्यंत प्रभावित ढंग से दिखाया गया है तथा अंत में संस्कारों पर भावना की जीत होती है |

चरित्र चित्रण

मांँ इस एकांकी के प्रमुख पात्र हैं | वह संक्रांति काल की एक हिंदू नारी है, जो भारतीय संस्कृति के प्राचीन रीति-रिवाजों से बँधी हुई है | वह रूढ़ियों , जातिवाद और धर्म में विश्वास करती है | इस कारण कई बातों में उसका अपने पति से मतभेद है परंतु फिर भी वह उसका मान रखती है | जब उसके बड़े बेटे ने एक विजातीय बंगाली महिला से विवाह कर लिया था तथा उसके साथ परिवार से अलग रहने लगा था तो माँ उसके घर नहीं जा पाती | वह अत्यंत भावुक है बड़े बेटे की बीमारी की बात सुनकर व्याकुल हो उठती है | जब उसे पता लगा कि उसकी बड़ी बहू ने अविनाश की बीमारी में बहुत सेवा कर उसके प्राण बचाए तब माँ के हृदय में जो बड़ी बहू के प्रति घृणा के भाव थे वे सब दूर हो गए | बेटे की बीमारी के बाद जब उसकी बहू की तबीयत अधिक खराब हो जाती है तथा उसके बचने की कोई आशा नहीं रहती है तब माँ अपनी बड़ी बहू से मिलना चाहती है | अन्त में माँ के हृदय में बड़ी बहू के प्रति ममता जागृत हो जाती है और अंत में सब विरोध भुलाकर वह अपने बड़े बेटे अविनाश के घर अपनी बड़ी बहू को लेने जाती है माँ का हृदय परिवर्तन ही उसके चरित्र की सबसे महान विशेषता है, जो एक सुखी परिवार का प्रारंभ है |

अवतरण संबंधित प्रश्न – उत्तर

(क) “काश कि मैं निर्मम हो सकती, काश कि मैं संस्कारों की दासता से मुक्त हो सकती ! हो पाती तो कुल, धर्म और जाति का भूत मुझे संग न करता और मैं अपने बेटे से न बिछुड़ती।”

(i) वक्ता कौन है ? यह वाक्य वह किसे कह रही है ?

उत्तर – वक्ता ‘संस्कार और भावना’ शीर्षक एकांकी की पात्र माँ है। वह उक्त वाक्य अपने छोटे पुत्र अतुल की पत्नी उमा से कह रही है।

(ii) ‘संस्कारों की दासता सबसे भयंकर शत्रु है’ यह कथन एकांकी में किसका है ? उसने ऐसा क्यों कहा

उत्तर – संस्कारों की दासता सबसे भयंकर शत्रु है’-यह वाक्य माँ के सबसे बड़े बेटे ने कहा था जिसे इस समय माँ स्मरण कर रही है। उसने ऐसा इसलिए कहा था कि उसकी माँ अपनी बड़ी बहू के विषय में अच्छा नहीं सोचती थी।

(iii) संस्कारों की दासता के कारण वक्ता को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?  

उत्तर – संस्कारों की दासता के कारण माँ अपने बड़े पुत्र अविनाश तथा उसकी पत्नी से बिछुड़ जाती है। उसे इस बात का गहरा दुख था कि अविनाश ने एक विजातीय बंगाली लड़की से विवाह किया था।

(iv) प्रस्तुत एकांकी द्वारा एकांकीकार ने क्या संदेश दिया है ?

उत्तर – प्रस्तुत एकांकी द्वारा लेखक ने बताना चाहा है कि जाति, धर्म, क्षेत्रीयता आदि मानव विरोधी नहीं हो सकते हम संस्कारों के नाम पर अपनी संतान से दूर नहीं हो सकते।

(ख) अपराध और किसका है | सब मुझी को दोष देते हैं |

(i) वक्ता और श्रोता कौन है ?

उत्तर – वक्ता माँ और श्रोता उसकी बहू उमा है |

(ii) वक्ता किस बात से दुखी थी ?

उत्तर – पता मांँ को अपने बेटे अविनाश की बीमारी का पता ही नहीं चला, जो अलग रहता है और पिछले महीने गंभीर रूप से बीमार था, यह बात सुनकर दुखी थी |

(iii) वक्ता को किस घटना का स्मरण हो आता है ?

उत्तर – वक्ता माँ को बहुत समय पूर्व अपने बेटे अविनाश के बचपन की घटी एक घटना का स्मरण हो आता है बचपन में जब अविनाश को कभी खाँसी भी हो जाती थी, तो वह कई कई दिन तक न खाती थी , न सोती थी |

(iv) मिसरानी ने वक्ता को क्या बताया ?

उत्तर – मिसरानी ने मांँ को बताया कि अविनाश की बहू ने अपने प्राण खपाकर अपने पति को बचा लिया | वह अकेले थी पर किसी के आगे हाथ पसारने नहीं गई | स्वयं दवा लाती थी घर का काम करती थी और अविनाश को भी देखती थी |

GyaanGranth

Dharmik , Jaankari

उपनयन संस्कार क्या ह

उपनयन संस्कार क्या है, कब होता है व क्यों किया जाता है?

October 16, 2023

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By Sachin Dangi

Upanayan Sanskar Kya Hai in Hindi: सनातन हिंदू धर्म विज्ञान एवं पौराणिक मान्यताओं पर आधारित है। हिन्दू धर्म का मुख्य आधार इसके वेद उपनिषद् और प्राचीन ग्रन्थ है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसकी स्थापना देवताओं और ऋषि-मुनियों द्वारा की गयी है। हिन्दू धर्म के रीतिरिवाज और त्योहारों का कुछ ना कुछ वैज्ञानिक महत्व अवश्य है जिसके कारण ही इसका मूल सनातनी स्वरूप समाप्त नहीं हुआ है। हिंदू धर्मग्रंथों में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार बताये गए है। ये 16 संस्कार मनुष्य को अपने जीवन के विकास में सहायता करते है। इस पोस्ट में आप जानेंगे हिन्दू धर्म के प्रमुख संस्कारों के नाम और उपनयन संस्कार क्या है –

Table of Contents

16 संस्कारो के नाम

जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले 16 संस्कार क्रमशः निम्नानुसार है –

(1) गर्भाधान संस्कार,

(2) पुंसवन संस्कार,

(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार,

(4) जातकर्म संस्कार,

(5) नामकरण संस्कार,

(6) निष्क्रमण संस्कार,

(7) अन्नप्राशन संस्कार,

(8) मुंडन संस्कार,

(9) कर्णवेधन संस्कार,

(10) विद्यारंभ संस्कार,

(11) उपनयन संस्कार,

(12) वेदारंभ संस्कार,

(13) केशांत संस्कार,

(14) सम्वर्तन संस्कार,

(15) विवाह संस्कार 

(16) अन्त्येष्टी संस्कार

लेकिन इस लेख में हम विस्तार से केवल यह जानेंगे कि उपनयन संस्कार क्या है?

उपनयन संस्कार क्या है?

उपनयन संस्कार हिन्दू धर्म में बताये गए 16 संस्कारों में से एक है। इसे सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन समय में यह संस्कार वर्ण के आधार पर किया जाता था। यह संस्कार तब किया जाता है जब बालक ज्ञान प्राप्त करने योग्य हो जाता है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय भेजने से पहले यह संस्कार किया जाता है। सामाजिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण जाति के बालक को 8 वर्ष में, क्षत्रिय बालक को 11 वर्ष एवं वैश्य जाति के बालक का 15 वर्ष में उपनयन संस्कार किया जाता है। प्राचीन समय में जिस बालक का उपनयन संस्कार नहीं होता था उसे मुर्ख की श्रेणी में रखा जाता था।

उपनयन संस्कार की विधि –

इस संस्कार में बालक को जनेऊ पहनाया जाता है, जो सूत से बनी होती है। इसमें बालक को उसके गुरु द्वारा मंत्र और दीक्षा के बारे में बताया जाता है। बालकों के अलावा बालिकाओं के उपनयन संस्कार का विधान भी कुछ ग्रंथो में मिलता है लेकिन सिर्फ उसी बालिका का उपनयन संस्कार किया जाता है जो आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण करती है। अविवाहित बालक 3 धागों वाली जनेऊ पहनते है और विवाहित पुरुष 6 धागों से बनी जनेऊ पहनते है जिसमे हल्दी लगी होती है और उसे यह जनेऊ सम्पूर्ण जीवन पहनकर रखना चाहिए। जनेऊ को ब्रह्मसूत्र भी कहा जाता है इससे जुड़े कुछ नियम भी गुरु द्वारा बताये जाते है। इस संस्कार के समय बालक का मुंडन भी किया जाता है। इसके उपरांत उसे कम से कम कपडे पहनकर अपने परिजनों के पास भिक्षा लेने भेजा जाता है।

उपनयन संस्कार का महत्व

उपनयन संस्कार युवा अवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है, इस संस्कार का लक्ष्य होता कि शिक्षा का आरम्भ करना तथा मनुष्य के जीवन में आने वाले हर चरण को अध्ययन के माध्यम से समझना और ज्ञान अर्जित करना। इस संस्कार के बाद व्यक्ति जीवन को नियमो के साथ और अच्छे से व्यतीत कर पाता है। गुरु अपने छात्रो के साथ रह कर उन्हें शिक्षा देते हैं और हमेशा साथ रहने के कारण वह उन्हें हर समय संस्कार और शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। उपनयन का अर्थ इ समीप होता है, और गुरुओ के समीप रहने से सकारात्मकता रहती है तथा जीवन में आ उन्नति करना सरल हो जाता है। हर युग में ज्ञान और शिक्षा को महत्वपूर्ण माना गया है, तथा हिन्दू धर्म के वर्षो पुराने ग्रंथो में भी इसके बारें में काफी कुछ लिखा गया है।

उपनयन संस्कार कब होता है?

उपनयन संस्कार की उम्र वर्णों के आधार पर की जाती थी जैसे ब्राह्मण वर्ण के जातकों का 8वें वर्ष में तो क्षत्रिय जातकों का 11वें एवं वैश्य जातकों का उपनयन 12हवें वर्ष में किया जाता था इसके अलावा शूद्र वर्ण व कन्याएं उपनयन संस्कारका अधिकार नहीं रखती थी। जो सही समय पर इस संस्कार का पालन नहीं करता था उसे व्रात्य जहा जाता था।

उपनयन संस्कार में शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा प्राप्त होती है एवं उसके बाद यज्ञोपवीत / जनेऊ धारण किया जाता है। तत्पश्चात वह गुरु के पास जाकर वेदों का अध्ययन करता है। यह मान्यता है कि उपनयन संस्कार करने से से बच्चे की न केवल भौतिक, बल्कि आध्यात्मिक प्रगति भी अच्छी तरह से होती है।

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essay on sanskar in hindi language

Upnayan Sanskar: इस संस्कार से बल, ऊर्जा और तेज की होती है प्राप्ति, जानें क्या है इसका महत्व

Upnayan Sanskar हिंदू धर्मों के 16 संस्कारों में से 10वां संस्कार है उपनयन संस्कार। इसे यज्ञोपवित या जनेऊ संस्कार भी कहा जाता है।

Upnayan Sanskar: इस संस्कार से बल, ऊर्जा और तेज की होती है प्राप्ति, जानें क्या है इसका महत्व

अच्छे संस्कार पर निबंध 10 lines (Good Manners Essay in Hindi) 100, 150, 200, 250, 300, 500, शब्दों मे

essay on sanskar in hindi language

अच्छे संस्कार पर निबंध (Good Manners Essay in Hindi) एक व्यक्ति दूसरे के प्रति कैसा व्यवहार करता है, उसे ‘तरीका’ कहा जा सकता है। शिष्टाचार हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किसी का व्यवहार हमें उस व्यक्ति के बारे में कितनी ही बातें बता सकता है, जैसे उसकी पृष्ठभूमि, उसकी शिक्षा आदि। लेकिन ‘आचार’ एक सामान्य शब्द है, कहने का मतलब यह नहीं है कि शिष्टाचार हमेशा अच्छा ही होता है, हालांकि उसे हमेशा अच्छा ही होना चाहिए। अच्छे, अगर ठीक से नहीं उगाए जाते हैं तो वे बुरे हो सकते हैं, जिसे आमतौर पर ‘बुरा – शिष्टाचार’ कहा जाता है। और इसलिए हर बच्चे में बचपन से संस्कार यानी ‘गुड मैनर्स’ डाले जाते हैं।

शिष्टाचार की सीख घर से ही शुरू होती है क्योंकि माता-पिता बच्चे के पहले शिक्षक होते हैं, माता-पिता भी बच्चे को सबसे पहले संस्कार सिखाते हैं। लेकिन यहां एक बात समझने वाली है कि इंसान का दिमाग ग्रहणशील होता है और इसलिए हम इंसान अपने आस-पास होने वाली बहुत सी चीजों को ग्रहण करते हैं या यूं कहें कि सीखते और ग्रहण करते हैं। और यह परिवेश भी एक हद तक बच्चे में शिष्टाचार की खेती में भूमिका निभाता है।

इसलिए, अच्छा परिवेश अच्छे शिष्टाचार पैदा करता है और इसके विपरीत।

बाद में, माता-पिता और आसपास के स्कूल और शिक्षक छात्रों को अच्छे शिष्टाचार सिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, जब भी शिक्षक कक्षा में प्रवेश करता है, छात्रों को शिक्षक को गुड मॉर्निंग, या गुड आफ्टरनून (समय के अनुसार) का अभिवादन करना चाहिए, साथ ही “मे आई कम इन” और “मे आई गो” जैसे वाक्यांशों का उपयोग भी सिखाया जाता है। विद्यालय में उपयोग किया जाए। और ये वाक्यांश छात्रों के साथ जीवन भर बने रहते हैं।

अच्छे शिष्टाचार पर 10 पंक्तियाँ (10 Lines on Good Manners in Hindi)

  • 1) अच्छे व्यवहार हमें बताते हैं कि हमें दूसरों के साथ सम्मानजनक और विनम्र तरीके से कैसे व्यवहार करना चाहिए।
  • 2) इसमें हमारी सोच, व्यवहार, हावभाव और दूसरों से बात करने का तरीका शामिल है।
  • 3) यह एक सामान्य मनुष्य को एक सभ्य कल्याणकारी या कुलीन व्यक्ति में परिवर्तित करता है।
  • 4) बच्चों में बहुत कम उम्र में अच्छे संस्कार डाले जाते हैं।
  • 5) बच्चों को अच्छा व्यवहार सिखाते समय हमेशा उदाहरण उद्धृत करें, क्योंकि उदाहरण उन्हें सीखने का सबसे अच्छा तरीका है।
  • 6) जब कोई आपके घर आता है और जब वह जाता है तो हमेशा खड़े होकर अभिवादन करें।
  • 7) किसी से कुछ लेने से पहले हमेशा “मैं कर सकता हूँ” पूछें और अगर कोई आपसे कुछ लेने के लिए कहता है तो हमेशा “कृपया” के साथ उत्तर दें।
  • 8) जब कोई आपको कुछ ऑफर करता है, तो उसे “धन्यवाद” के साथ जवाब देने के लिए जवाब दें।
  • 9) जब कोई बच्चा कुछ कहना चाहता है, तो उससे पहले “एक्सक्यूज़ मी” बोलें, कभी भी दो व्यक्तियों को बीच में न टोकें जब वे बात कर रहे हों।
  • 10) अपनी राय दूसरों पर थोपने की कोशिश न करें, उनकी राय का सम्मान करें और उनकी बात भी सुनें।

अच्छे संस्कार पर निबंध 100 शब्द (Good manners Essay 100 words in Hindi)

हमारा समुदाय हमें हमारे नैतिक आचरण के लिए पहचानता है। यह सही शिष्टाचार रखने का एक संकेत है जिसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाना चाहिए। अपने निस्वार्थ गुण को परिभाषित करने से पहले दूसरों को रखना और बदले में, आप दूसरों से उदारता प्राप्त करते हैं।

निस्वार्थ होने में दूसरों की भावनाओं का सम्मान करना और उन्हें ठेस न पहुँचाना शामिल है। शेयरिंग दूसरे व्यक्ति के लिए सम्मान और प्यार दिखाने का एक और तरीका है और दो व्यक्तियों के बीच सद्भाव बनाए रखता है। अतिथि को आराम से बिठाना और अपने घर में रहने के दौरान उसकी सेवा करना भी आपके अच्छे संस्कारों का परिचायक है।

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अच्छा व्यवहार पर निबंध 150 शब्द (Good manners Essay 150 words in Hindi)

दूसरों के बारे में निस्वार्थ भाव से सोचना एक ऐसा गुण है जिसकी हर कोई सराहना करता है। अच्छे शिष्टाचार वे मानदंड हैं जो उस समाज द्वारा निर्धारित और स्वीकार किए जाते हैं जिसमें हम रहते हैं। यदि हम एक सदाचारी मानव कहलाना चाहते हैं तो ये वे सिद्धांत हैं जिनका हमें धार्मिक रूप से पालन करना होगा। दूसरों से विनम्रता से बात करना बुनियादी सिद्धांतों में से एक है जो अकेले ही दूसरों पर अच्छा प्रभाव डाल सकता है।

एक बुद्धिमान व्यक्ति अपनी सत्यनिष्ठा के लिए जाना जाता है और उसका एक सम्मानित व्यक्तित्व होता है। वह प्रसिद्ध हैं क्योंकि उन्हें अपने बड़ों का सम्मान करने और उनका ठीक से अभिवादन करने की आदत है। अन्य लोग भी उसे चर्चाओं में शामिल करते हैं क्योंकि वह लोगों के समूह के साथ अच्छा तालमेल बनाए रख सकता है। वह जानता है कि कैसे कृतज्ञ होना चाहिए और दूसरों के लिए क्षमाप्रार्थी होना चाहिए। बिना अपेक्षा के दूसरों की मदद करना उसके इरादों में शामिल है।

अच्छा व्यवहार पर निबंध 200 शब्द (Good manners Essay 200 words in Hindi)

हमारा विनम्र आचरण हमारे मित्रों के मन में एक यादगार छवि बनाता है। एक अच्छा व्यवहार करने वाला व्यक्ति दूसरों के साथ विनम्रता से बातचीत करता है क्योंकि उसका मुख्य उद्देश्य सम्मान प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से कहा गया है कि यदि हम एक सम्मानित व्यक्तित्व के लिए बनना चाहते हैं तो हमें सम्मान लौटाना चाहिए। परिचितों को अनुकूल तरीके से अभिवादन करना और उन्हें धैर्यपूर्वक सुनना एक अच्छे व्यवहार वाले व्यक्ति का प्रतीक है। ये हमारे समुदाय में एकजुटता हासिल करने के प्रयास हैं।

हमें यह सिखाया जाता है कि हम जिस किसी से भी मिलें उसके साथ अच्छा व्यवहार करें। व्यवहार हमारे अंदर सकारात्मक सोच का समन्वय करते हैं और सही तरीके से सोचने की क्षमता में सुधार करते हैं। वे हमें सही और गलत के बीच अंतर करने में मदद करते हैं और हमें सूचित निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।

असभ्य होना दूसरों को चोट पहुँचाने का एक प्रयास है और यह किसी को भी मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित कर सकता है। इस तरह का व्यवहार हमें एक अच्छा इंसान बनने की योग्यता नहीं देता है। इसके बजाय, हम परिणामस्वरूप अलग-थलग पड़ जाते हैं। अगर हमने किसी को ठेस पहुंचाई है तो क्षमा मांगना बेहतर है क्योंकि दया दो लोगों के बीच लंबे समय तक मनमुटाव को रोक सकती है।

शिष्टाचार को विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग परिभाषित किया गया है, लेकिन उनके पक्ष के लिए आभारी होना एक सार्वभौमिक नियम है। एक साधारण धन्यवाद दूसरे व्यक्ति पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकता है और दो व्यक्तियों के बीच नई दोस्ती बना सकता है। यह उचित समझ विकसित कर सकता है और उनके बीच सामंजस्य बनाए रख सकता है।

अच्छा व्यवहार पर निबंध 250 शब्द (Good manners Essay 250 words in Hindi)

अच्छा व्यवहार कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके साथ हम पैदा होते हैं; हमें उन्हें सीखना होगा। हर कोई और सब कुछ हमें अच्छा व्यवहार सिखा सकता है। माता-पिता सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं जो अच्छे संस्कार सिखाते हैं। “क्षमा करें”, “धन्यवाद”, “कृपया”, आदि शब्द अच्छे व्यवहार को दर्शाते हैं। यदि बच्चा छोटी उम्र से ही अच्छे संस्कार सीख लेता है, तो जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाएगा उसके लिए जीवन की सभी परिस्थितियों से निपटना आसान हो जाएगा।

अच्छे आचरण के लाभ

जीवन के हर क्षेत्र में अच्छे संस्कार जरूरी हैं। इससे हमें दूसरों की नज़रों में एक भरोसेमंद छवि बनाने में मदद मिलेगी। इससे आपको दुनिया पर अपना अच्छा प्रभाव डालने में मदद मिलेगी। व्यक्ति के व्यवहार से पता चलता है कि आप किस प्रकार के व्यक्ति हैं। इससे पहले कि हम कुछ कहें, लोग हमारे व्यवहार से हमें जान जाते हैं। इज्जत कमाने से लेकर लोकप्रियता तक अच्छे संस्कार से सब कुछ संभव है।

अच्छा व्यवहार: सफलता की सीढ़ी

अच्छे संस्कार जीवन में आगे बढ़ने की पहली सीढ़ी है। जीवन में सफल होने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, आपको अच्छे शिष्टाचार की आवश्यकता है। अच्छे शिष्टाचार न केवल हमारे आस-पास चीजों को बेहतर बनाएंगे, बल्कि वे लंबे समय में हमारे लिए चीजों को बेहतर भी बनाएंगे। इसके अलावा, अच्छे व्यवहार से अच्छी आदतें पैदा होती हैं और अच्छी आदतें विकास और सफलता की ओर ले जाती हैं।

संस्कार विहीन व्यक्ति धन विहीन बटुए के समान होता है, जो ऊपर से तो अच्छा लगता है, पर भीतर से खाली होता है। अच्छा व्यवहार करने से हमें कई तरह से मदद मिल सकती है। इसलिए हमें हमेशा दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना चाहिए और जीवन में अच्छे संस्कारों का पालन करना चाहिए।

अच्छा व्यवहार पर निबंध 300 शब्द (Good manners Essay 300 words in Hindi)

जीवन में अच्छे शिष्टाचार बहुत आवश्यक हैं क्योंकि वे हमें लोगों के साथ समाज में अच्छा व्यवहार करने में मदद करते हैं और साथ ही हमें सहज, सहज और सकारात्मक संबंध बनाए रखने में मदद करते हैं। भीड़ में लोगों का दिल जीतने में हमारी मदद करें और हमें एक अनोखा व्यक्तित्व दें। अच्छा व्यवहार हमें प्रसन्न करने वाला और प्रकृति का पालन करने वाला व्यक्ति बनाता है जिसे समाज में सभी द्वारा वास्तव में प्यार और सराहना की जाती है।

अच्छे शिष्टाचार क्या हैं

अच्छे शिष्टाचार वाला व्यक्ति आसपास रहने वाले लोगों की भावनाओं और भावनाओं के प्रति सम्मान दिखाता है। वह कभी भी लोगों में अंतर नहीं करता है और सभी के प्रति समान सम्मान और दया दिखाता है चाहे वह अपने से बड़ा हो या छोटा। शालीनता और शिष्टता एक अच्छे व्यवहार करने वाले व्यक्ति के आवश्यक गुण हैं। वह कभी भी गर्व या अहंकार महसूस नहीं करता है और हमेशा दूसरे लोगों की भावनाओं का ख्याल रखता है। पूरे दिन अच्छे शिष्टाचार का अभ्यास करने और उनका पालन करने से जीवन में धूप आती ​​है और जीवन में गुण जुड़ते हैं। वह हमेशा मानसिक रूप से खुश रहता/रहती है क्योंकि अच्छे व्यवहार से उसका व्यक्तित्व समृद्ध होता है।

सभी छात्रों को अच्छे संस्कार की शिक्षा देना उनके माता-पिता और शिक्षकों से देश और देश के लिए एक वरदान है क्योंकि वे उज्ज्वल भविष्य हैं। देश के युवाओं में अच्छे संस्कारों की कमी उन्हें गलत रास्ते पर ले जाती है। अच्छे शिष्टाचार का अभ्यास करने में कुछ भी खर्च नहीं होता है लेकिन हमें जीवन भर बहुत कुछ मिलता है। कुछ अच्छे संस्कार इस प्रकार हैं:

  • धन्यवाद: जब भी हमें किसी से कुछ मिलता है तो हमें धन्यवाद कहना चाहिए।
  • कृपया: हमें दूसरों से कुछ माँगते समय कृपया कहना चाहिए।
  • हमें हमेशा दुखी लोगों का साथ देना चाहिए।
  • हमेशा गलतियों को स्वीकार करना चाहिए और बिना किसी हिचकिचाहट के सॉरी बोलना चाहिए।
  • हमें दैनिक जीवन में अनुशासित और समयनिष्ठ होना चाहिए।
  • हमेशा दूसरों के अच्छे व्यवहार और गुणों की तारीफ करनी चाहिए।
  • हमें उन लोगों की बात ध्यान से सुननी चाहिए जो हमसे बात कर रहे हैं।
  • किसी दूसरे की चीजों को छूने या इस्तेमाल करने से पहले इजाजत लेनी चाहिए।
  • हमें हमेशा दूसरों के सवालों का जवाब मुस्कान के साथ देना चाहिए।
  • बड़ों की सभाओं के बीच कभी व्यवधान नहीं डालना चाहिए और अपनी बारी की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
  • हमें बड़ों (चाहे परिवार में, रिश्ते में या पड़ोसियों में), माता-पिता और शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए।
  • क्षमा करें: किसी चीज़ के लिए ध्यान आकर्षित करते समय हमें क्षमा करना चाहिए।
  • हमें दूसरे के घर या शयनकक्ष में प्रवेश करने से पहले दरवाजा खटखटाना चाहिए।

जीवन में लोकप्रियता और सफलता पाने के लिए अच्छे शिष्टाचार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कोई भी शरारती व्यक्ति को पसंद नहीं करता है। अच्छे संस्कार समाज में रहने वाले लोगों के लिए टॉनिक की तरह होते हैं क्योंकि इनका अभ्यास करने से जीवन भर बहुत लाभ होता है। विनम्र और सुखद स्वभाव वाले लोग हमेशा बड़ी संख्या में लोगों द्वारा पूछे जाते हैं क्योंकि वे उन पर चुंबकीय प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार, हमें अच्छे शिष्टाचार का अभ्यास और पालन करना चाहिए।

अच्छा व्यवहार पर निबंध 500 शब्द (Good manners Essay 500 words in Hindi)

बचपन से ही हमें हमेशा अच्छे संस्कार सिखाए जाते थे। हमारे माता-पिता हमेशा हमें अच्छे शिष्टाचार अपनाने के लिए जोर देते थे। इसके अलावा, उन्होंने हमेशा हमें एक अच्छा इंसान बनने के लिए सब कुछ सिखाने की पूरी कोशिश की। समाज में रहने के लिए व्यक्ति के लिए अच्छे शिष्टाचार महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, अगर कोई व्यक्ति हर किसी के द्वारा पसंद किया जाना चाहता है तो उसे पता होना चाहिए कि कैसे व्यवहार करना है। एक शिक्षित व्यक्ति और एक अनपढ़ व्यक्ति के बीच का अंतर ज्ञान का नहीं है। लेकिन जिस तरह से वह बोलते और काम करते हैं। अतः अच्छे संस्कारों की उपस्थिति व्यक्ति को सज्जन बना सकती है। फिर भी अगर किसी व्यक्ति में इसकी कमी है तो सबसे शिक्षित व्यक्ति भी अच्छा आदमी नहीं होगा।

व्यक्ति के जीवन में अच्छे संस्कारों का बहुत महत्व होता है। जीवन में सफल होने के लिए व्यक्ति को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कैसे बातचीत करता है। विभिन्न व्यवसायी और सफल लोग ऊंचाइयों को प्राप्त कर रहे हैं। यह उनके अच्छे शिष्टाचार और कौशल के कारण है। अगर कोई बॉस अपने कर्मचारियों से ठीक से बात नहीं करेगा तो वे नौकरी छोड़ देंगे। इसलिए जीवन के किसी भी क्षेत्र में अच्छे संस्कार जरूरी हैं।

हमारे माता-पिता ने हमेशा हमें अपने से बड़ों का सम्मान करना सिखाया है। क्योंकि अगर हम अपने बड़ों का सम्मान नहीं करेंगे तो हमारे छोटों हमारा सम्मान नहीं करेंगे। सम्मान भी अच्छे व्यवहार से आता है। सम्मान इंसान की सबसे जरूरी जरूरतों में से एक है। इसके अलावा, बहुत से लोग सम्मान अर्जित करने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत करते हैं। जब से मैं एक बच्चा था, मैंने हमेशा अपने माता-पिता से सुना है कि सम्मान सबसे बड़ी चीज है जिसे आपको अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। इसलिए जीवन में हर कोई सम्मान का पात्र है।

सद्व्यवहार का विभाजन दो वर्गों में किया जा सकता है:-

स्कूल में अच्छा व्यवहार

स्कूल में, एक बच्चे को अपने शिक्षकों और वरिष्ठों का सम्मान करना चाहिए। इसके अलावा, उसे शिक्षक जो कह रहा है उसे सुनना चाहिए क्योंकि वे उसके गुरु हैं। इसके अलावा, बच्चे को अच्छी तरह से तैयार और स्वच्छ होना चाहिए।

इसके अलावा, स्वच्छता बनाए रखने के लिए, एक बच्चे को हमेशा रूमाल रखना चाहिए। बच्चे को हमेशा समय का पाबंद होना चाहिए। ताकि वह दूसरों का समय बर्बाद न कर सके। साथ ही बिना अनुमति के कभी भी दूसरों की चीजें नहीं लेनी चाहिए।

चूंकि स्कूल में बहुत सारे बच्चे पढ़ रहे हैं, इसलिए आपको कतार में खड़े होकर एक-दूसरे को धक्का नहीं देना चाहिए।

घर में अच्छा व्यवहार

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको घर में अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए। दिन की शुरुआत और अंत में हमेशा उन्हें “GOOD MORNING” और “GOOD NIGHT” विश करें। इसके अलावा, आपको अपने दांतों को ब्रश करना चाहिए और रोजाना स्नान करना चाहिए। तो, आप उचित स्वच्छता बनाए रख सकते हैं।

खाना खाने से पहले हाथ धोएं, खाना अच्छी तरह चबाएं और मुंह बंद करके खाएं। साथ ही घर से बाहर जाने से पहले माता-पिता से अनुमति लेनी चाहिए। सबसे ऊपर आप अपनी वाणी में ‘धन्यवाद’ और ‘कृपया’ शब्दों का प्रयोग करें।

बड़ों के लिए काम पर अच्छा व्यवहार। आपको अपने सहकर्मियों का सम्मान करना चाहिए। साथ ही आपको समय पर अपना काम पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए।

इसके अलावा, आपको कार्यालय में समय का पाबंद होना चाहिए। काम करते समय गपशप न करें और दूसरों को विचलित न करें।

साथ ही आपको दूसरों के काम में दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिए। अपने कनिष्ठ कर्मचारियों पर विचार करें और उन्हें कोई परेशानी हो तो उनकी मदद करें। अंत में भ्रष्टाचार के झांसे में न आकर ईमानदारी और लगन से अपना काम करें।

अच्छे शिष्टाचार पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

प्रश्न.1 अच्छा व्यवहार कैसे सीखें.

उत्तर. अच्छे संस्कार माता-पिता, शिक्षकों और बड़ों द्वारा सिखाए जाते हैं। आस-पास के लोगों को देखकर और आसपास से अच्छी आदतें सीखकर अच्छे शिष्टाचार सीख सकते हैं।

प्र.2 संस्कार विहीन व्यक्ति को क्या कहते हैं?

उत्तर. आचारविहीन व्यक्ति को दुराचारी, असभ्य, असभ्य आदि कहा जाता है।

प्र.3 सार्वजनिक रूप से अच्छे व्यवहार क्या हैं?

उत्तर. सार्वजनिक रूप से सभी से विनम्रता से बात करनी चाहिए, किसी को या कुछ भी इशारा नहीं करना चाहिए, दूसरों को परेशान नहीं करना चाहिए, शोर नहीं करना चाहिए आदि।

प्र.4 अच्छे शिष्टाचार के मुख्य स्तंभ क्या हैं?

उत्तर. सम्मान, विचार और ईमानदारी अच्छे शिष्टाचार के तीन प्रमुख स्तंभ हैं।  

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अच्छे संस्कार और शिष्टाचार पर निबन्ध – Good Manners Essay In Hindi

 बच्चो को अच्छे संस्कार कैसे दे.

Sanskar Essay in Hindi

संस्कार का अर्थ – What is the Meaning of Sanskar in Hindi

Sanskar in Hindi – संस्कार का तात्पर्य हृदय से शिष्ट आचरण करना सिखाना है। दिखावे या कृत्रिमता का संस्कार में तनिक भी स्थान नहीं है। बच्चों को अच्छे संस्कार अर्थात् माता – पिता को नमस्कार करना, सभी व्यक्तियों के साथ विनम्रता का व्यवहार करना, किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचाना, छोटे बड़े का लिहाज करना तथा हर तरह से मर्यादित आचरण करना इत्यादि बताएं;

बच्चों को अच्छे संस्कार और शिष्टाचार कब और कैसे दे

आजकल के बच्चे एक अच्छा इंसान बनने के बजाय संस्कारहीन बनते जा रहे हैं। माता – पिता भी बच्चे के प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाने से ज्यादा उन्हें किसी बड़े स्कूल – कॉलेजों में दाखिला दिलाने और ऐशो-आराम पर समय और धन खर्च करने के लिए उतावले रहते है। उनका यह गैरजिम्मेदाराना रवैया बच्चो में संस्कारहीनता को बढ़ावा दे रहा हैं। बच्चे जरूरी संस्कारो से वंचित होते जा रहे हैं। 

आजकल के बच्चों में संस्कारहीनता एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। चोरी, डकैती, लूटपाट, आगजनी, ड्रग्स सेवन, मद्यपान, धूम्रपान आदि गंदी आदतों का शिकार वे बड़ी सरलता से हो रहे है।  जिसका खामियाजा माता – पिता के साथ पुरे समाज को भुगतना पड़ रहा है।

ऐसा नहीं कि बच्चे में बढ़ती इस प्रवृत्ति यानि संस्कारहीनता को रोका नहीं  जा सकता है। बच्चे में बढ़ती इस प्रवृत्ति को रोकने की शक्ति संस्कारों में निहित है।

बच्चे ईश्वर का दिया हुआ एक अनुपम वरदान है। देश का भविष्य हैं, इसलिए उनका बचपन संवारना हर माता – पिता का सबसे पहला दायित्व है। स्वयं संस्कारी होना और अपने संस्कारों से अपने बच्चों को गढ़ने में सहयोग करना यदि हर माता – पिता की जीवन – नीति बन जाए तो देश के भविष्य में नए प्राण फूँके जा सकते हैं। बच्चे संस्कारहीन होते ही इस कारण हैं, क्योंकि माता – पिता एवं परिवारीजन के पास इन्हें संस्कार और शिष्टाचार सिखाने की फुरसत ही नहीं होती है।

समाज में व्यक्ति की पहचान ज्ञान के साथ – साथ उसके अच्छे संस्कार से भी होती है। अच्छे संस्कार के बिना व्यक्ति अधूरा है। अगर हर माँ – बाप सही वक्त पर सही संस्कार अपने बच्चों को दे तो वह संस्कार बच्चों के साथ जीवनपर्यंत रहता है।

बच्चे तो कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। यही सही समय है जब उन्हें अच्छे आकार – प्रकार में ढाला जा सकता है। वे अच्छे रूप में ढलें, अच्छी दिशा में बढ़े, मन से पवित्र और तन से स्वस्थ बनें और उनके जीवन की बुनियाद मजबूत बने इसके लिए उन्हें अभी से मानसिक एवं शारीरिक रूप से बलवान बनाने के लिए उचित “संस्कार” देना जरुरी है।

बच्चे बहुत छोटे होते है । इस समय बालकों का नैतिक विकास नहीं हुआ होता है । उसे अच्छी बुरी उचित और अनुचित  बातों का ज्ञान नहीं होता है । वे वही कार्य करते है जिसमें उसे आनन्द आता है भले ही वह नैतिक रूप से अवांछनीय हो । जिन कार्यों से दुःख होता है उन्हें वह छोड़ देता है ।

इसलिए बच्चों में बचपन से ही नैतिक मूल्यों के बीज बोने शुरू कर देने चाहिए है हर माता – पिता का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने बच्चे में संस्कार रूपी बीज को फलने – फूलने के लिए उसे सही माहौल दें सही शिक्षा दें क्योंकि बच्चे देश के भविष्य होते है। आपके के द्वारा दिया गया संस्कार उसे एक अच्छा नागरिक बनाएगा।

सिगमंड फ्रायड कहते है कि “मनुष्य को जो कुछ बनना होता है प्रारंभ के चार – पाँच वर्षों में ही बन जाता है ।” लेकिन आजकल के माता – पिता यही सोचते है कि अमुक जगह, अमुक कॉलेज, अमुक विद्यालय या अमुक स्कूल में भेज देंगे तो हमारे बच्चे योग्य, चरित्रवान और संस्कारवान बन जाएँगे। पर जब तक हम बच्चों को स्कूल – कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजते हैं, उस समय तक उसकी वह उम्र समाप्त हो जाती है, जिसमें बच्चे का निर्माण किया जाना संभव है।

इसलिए बच्चों में संस्कार के बीज बोने के लिए आपको उसके स्कूल जाने का इन्तजार नहीं करना चाहिए बल्कि बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए अभी से उन्हें अच्छे आहार – विहार और अच्छे आचार – विचार की शिक्षा दीजिये ।

साधारण बोलचाल की भाषा में कहे तो संस्कार की शिक्षा वह शिक्षा है जो बच्चों बड़ों का आदर करना, सुबह जल्दी उठना, सत्य बोलना, चोरी न करना, माता – पिता के चरणस्पर्श करना तथा अपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रहना सिखाना है।

अभिभावकों को आरम्भ से ही बच्चे में सत्य बोलने, बड़ों का आदर करने, समय पर काम करने, स्वच्छता, सफाई रखने तथा अन्य अच्छी आदतों के निर्माण का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि यही अच्छी आदतें ही हमारे भावी जीवन का निर्माण करती है। यह चीजे तभी संभव है जब बच्चे में अनुशासन हो । अत: संस्कार बच्चों को अनुशासन में रहना भी सिखाता हैं ।

हमारे चारों ओर जितनी भी अव्यवस्थाएँ एवं बुराइयाँ हैं, उन सबका मूल कारण अनुशासनहीनता है। इसलिए अनुशासन का पालन आवश्यक हो गया है। अनुशासन हमारे जीवन की आधारशिला होनी चाहिए। इसी पर सुख – समृद्धि और विकास का महल खड़ा हो सकता है। यदि हर बच्चा अनुशासन में रहने के गुण सीख ले तो राष्ट्र की उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

बचपन में परिवार के बाद विशेष रूप से बच्चों को संस्कार विद्यालय में सिखाएँ जाते हैं। अत: शिक्षक का कर्तव्य है कि वह कक्षा तथा खेल के मैदान में ऐसा वातावरण उपस्थित करें जिससे बच्चे में अच्छे संस्कार का विकास हो।

विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का आयोजन होना चाहिए जिनमें भाग लेने से बच्चे में अनुशासन, आत्मसंयम, उतरदायित्व, आज्ञाकारिता, विनय, सहयोग, सहानुभूति, प्रतिस्पर्धा आदि सामाजिक गुणों का विकास हो सके।

समाज के नैतिक मूल्यों, मान्यताओं और नियमों का ज्ञान देने के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। माता – पिता तथा शिक्षकों को बच्चों के सामने अच्छे आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए क्योंकि बच्चा अनुकरणीय होता है। इसके अतिरिक्त उन्हें आदर्श चरित्र वीरों, नेताओं और महापुरुषों की छोटी छोटी कथाएँ सुनानी चाहिए।

हर बच्चा संस्कार और आचरण को अपने माता – पिता के द्वारा किये गए अच्छे आचरण और अच्छे संस्कार से सीख सकता है। इसके लिए किन्हीं विशेष परिस्थितियों या उच्च खानदान में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं। किसी भी स्थिति का अभिभावक प्रयत्नपूर्वक संस्कार के बीज अपने बच्चों में डाल सकता है। इतिहास गवाह है कि  जिन माता – पिता ने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए है उन्होंने अपने माता –पिता का नाम रोशन किया है।

बचपन से बच्चों को ये 10 संस्कार के बारे में जरुर बताएं (Sanskar in Hindi)

ईश्वर में विश्वास रखें।

माता और पिता का सम्मान करे

सदा सत्य बोले और ईमानदारी के रास्ते पर ही चले

दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर रहे

कर्तव्यों का पालन करे

सभी से प्रेमपूर्वक व्यवहार रखे

देश के प्रति सम्मान

बुजुर्गो का सम्मान करे

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Acche sanskaro ke baare mai aur btaye

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16 Samskara – The Sixteen Rites of Passage in Hinduism

16 Samskaras in Hinduism

Sanskaras (Samskaras) are sacraments, sacrifices, and rituals that serve as transitional rites and record various stages of the life of the Hindus. All people should perform a series of sacrifices with offerings to gods, ancestors, and guardians following the Vedic sayings about dharma and righteous life.

The 16 samskaras, also known as the 16 sacraments or the 16 rites of passage, are a series of rituals and ceremonies that mark the various stages of a Hindu’s life, from birth to death. These samskaras are believed to purify and sanctify the individual and prepare them for the next stage of human life. The rituals are typically performed by a Hindu priest or a family member who is well-versed in the rituals and is assisted by other family members or friends.

Altogether 16 different rituals are practiced in Hinduism, established in the ancient holy books of Hinduism. Currently, it depends on the region, caste, or family traditions to define the ritual to be carried out.

A) Pre-Natal Sanskar

1. samskara garbhaadaan (conception).

This ritual is carried out between a married couple to procreate a healthy, prosperous, and cultured child. This first sanskara is performed immediately after each marriage and is part of Garbh Sanskar . The act of first intercourse or fertilization is known as a niche.

According to the ritual, if the wife wishes to procreate a child with the ideal characteristics, as brave as Abhimanyu , as devout as Dhruva, as spiritual as King Janaka , or as generous as Karna , she should take a bath on the 4th day after the menstrual period to be chaste, then she must pay her respects to her elders and gurus and later join her husband at an auspicious hour.

If fertilization occurs during the third phase of the night, for example, between 1200 am and 300 am, the born child will be a devotee of God and an upright and honest person.

2. Pumsavan Sanskar (Quickening the fetus)

This ritual aims to procreate a child and ensure that he is born healthy, beautiful, and intelligent, ensuring that the entire pregnancy period is normal and without the presence of problems. It is designed to ensure the birth of a boy. It is performed in the third month of pregnancy. If this is the first pregnancy, then it can occur in the fourth month.

The ritual is performed by a Hindu priest and involves various ceremonies and offerings to the gods and goddesses who are believed to bless the couple with a child. The ritual may also involve the recitation of mantras and the use of sacred items such as flowers, fruits, and grains.

The importance of Pumsavan Sanskar lies in the belief that in this period, apart from beginning to develop the limbs and the brain of the baby, their mental traits also begin to develop. It is believed that the parents’ mind has a great influence on the characteristics of the fetus, which is why this ritual is carried out since, according to the scriptures, this ritual makes the child develop physically and mentally strong.

3. Seemantonnayan (Parting of hair)

This ritual is to purify the mother’s womb, raise her morale and help her only to have good and pure thoughts since it will be the child that comes into the womb who will absorb all these thoughts. It is a ceremony performed in the fourth month of the woman’s pregnancy, and the husband combs his wife’s hair and expresses to her that he will not abandon her . This is the propitious moment to discuss with the mother the good actions to keep her happy and that these noble thoughts impact the unborn child.

B) Childhood Sanskar

4. jaatkarm (birth rituals).

This ritual is carried out when the baby is born but before the umbilical cord is cut to ask for his health, wealth, fame, energy, knowledge, and long life. The father welcomes and blesses the newborn child and feeds him or her with a little butter and honey .

By cutting the umbilical cord, the father performs a Yagya (ceremony with the presence of fire), whispers 9 mantras in one of the child’s ears, and asks for his fame, energy, knowledge, health, and wealth, and long life after this begins the ritual of the mother feeding her baby at her breast, praising the Gods and Goddesses.

5. Naamkaran (Naming the child)

This ceremony gives the baby a new name, blesses it, and wishes it a long life of fame and glory. It is usually done on the tenth day of birth. In some regions, this ceremony is done 101 days after birth, and in other places, one year after the child is born.

Naamkaran consists of giving honey and ghee to the child while whispering wise words in his ear. Then the prayer is made to the Sun, where the child is asked to be as bright as the Sun. Respect is also paid to Mother Earth. Then the child’s head is placed towards the North and the feet towards the South. Gifts are exchanged, and the child is given a new name.

6. Nishkraman (Taking the child out of home)

Nishkraman means to take the child out of the house . This ceremony takes place on an auspicious day, especially when both parents attend a pilgrimage. This ritual is believed to aid in good health and long life.

Nishkraman usually takes place in the fourth month of a child’s life when their sensory organs have fully developed so that the child can cope with the natural environment, heat, and air. Because according to Hindu beliefs, man is composed of ether, air, fire, water, and earth. The father of the child asks that the blessings of these five substances be granted to his son for his health and well-being.

7. Annaprasana (First Feeding)

The Annaprashana ritual is performed in the sixth month after the child is born. It is believed that the child has acquired an infection in its stomach during its gestation through its mother’s womb. It is also believed that the digestive system becomes active during this period due to the growth of teeth; therefore, the child’s stomach is ready to receive solid food.

During the Annaprashana ceremony, the child is given food made from ghee (clarified butter) or mixed with yogurt and honey . Mantras are recited, and food is offered to the Gods.

8. Choodaakarma or Mundan (First tonsure)

This ritual is carried out between the end of the first year of age or before completing the third year of life of the child. It consists of shaving the child’s head for the first time . According to Hindu beliefs, if a child’s hair is cut before his first year of birth, this could harm his health.

Some families perform Choodaakarma or Mundan between the age of 5 to 7 years. It is often held in a temple or pilgrimage site due to the serenity of the atmosphere in these places. It is believed that impure thoughts fade when cutting hair and pure and virtuous thoughts enter your brain.

9. Karnavedh (Piercing the ear)

This ceremony is performed when the child is 6 to 16 months old or between 3 to 5 years of age. It consists of piercing the child’s ear lobes . Through this ritual, it is believed that femininity (in the case of girls) or masculinity (in the case of boys) is conferred. According to beliefs, the sun’s rays enter the child’s body through the holes in both earlobes and infuse them with energy. After this ritual, the girls can wear jewelry.

Karnavedh ceremony is also credited with helping to protect against diseases as well as the acupuncture system. In some cases, holes are made in the nose to wear jewelry.

C) Educational Sanaskar

10. vedaarambh (initiation).

This ritual is similar to the previous one. Once the guru makes the student perform the Upanayanam , he begins to share the knowledge of the Vedas (holy scriptures) with him.

Vedaarambha, also known as Vidyarambham, is a Hindu ritual that marks the beginning of a child’s formal education. The ceremony typically takes place on the auspicious day of Vijayadashami, which falls in September or October. The child is typically between the ages of 2 and 5 years old at the time of the ceremony.

During the ceremony, the child is seated on a wooden plank and is made to write the letters of the alphabet , usually on rice grains spread on a plate or sometimes on the sand, by a teacher or a learned person. This act is symbolic of the child’s initiation into the world of knowledge and learning.

After the child completes writing the letters, the teacher or the learned person will recite a prayer to invoke the blessings of the gods and goddesses of learning, and the child’s parents will give the child a new set of clothes and a small amount of money as a symbol of the child’s new status as a student.

11. Upanayana or Yagyopaveet (Sacred thread)

Upanayana is a Hindu ritual that marks the beginning of a child’s formal education and spiritual journey. It is typically performed for boys between the ages of 8 and 12, and less frequently for girls. The word “upanayana” literally means “to lead or bring near” and refers to the child being brought near to the knowledge of the sacred texts and the guru who will teach them.

During the ceremony, the child is invested with the sacred thread or “yajñopaveetam” which symbolizes the boy’s spiritual commitment and marks his entry into the second stage of life, called “brahmacharya”. The child will start learning the Vedas, rituals, and spiritual disciplines , which is the main purpose of Upanayana.

The ceremony includes rituals such as the child’s head being shaved and the wearing of a new set of clothes, the child receiving blessings from the guru and the parents, and the child’s initiation into the study of the Vedas. It is typically performed by a Hindu priest or a qualified teacher. 

12. Samavartanam (Graduation)

Samavartanam, also known as Snāna-saṃskāra or Snāna-saṃskāra-Sambrama, is a Hindu ritual that marks the end of the student’s formal education and his return to the householder’s life. It typically takes place after the completion of the student’s education, usually around the age of 16-24.

During the ceremony, the student takes a ceremonial bath, which symbolizes the purification of the mind and body, and marks the end of the student’s life as a brahmachari (celibate student) and the beginning of the next stage of life, as a Grihastha (householder). The student then receives blessings from the guru and the parents and is given new clothes , which symbolize the end of the student’s spiritual journey and the beginning of his new role as a householder.

D) Marriage Sanskar

13. paanigrahan or vivaah (wedding).

Vivaha, also known as the Hindu wedding ceremony, is one of the 16 samskaras in Hindu tradition. It is a sacrament that marks the union of a man and a woman and the beginning of their life together as husband and wife.

Vivaha is typically an elaborate and elaborate ceremony that usually spans several days. The ceremony includes various rituals such as the exchange of garlands, the tying of the sacred thread around the couple’s wrists, the fire ceremony, and the exchange of vows . The couple also takes blessings from their parents and the Gods, they also receive blessings from the guru and other learned persons.

It is worth noting that different regions and communities in India have their own variations and customs in the wedding ceremony, but the main purpose and rituals are more or less similar, a healthy start to married life.

E) Spiritual Sanskar

14. vanaprastha (retirement).

Vanaprastha is the third stage of life according to Hindu tradition, after the householder stage and before the renunciant stage. It is a time when an individual is expected to withdraw from the material world and focus on spiritual pursuits . This stage usually takes place in the later years of life and is characterized by the individual’s withdrawal from the responsibilities of the householder and giving up material possessions.

15. Sanyasa (Renunciation)

Sannyasa is the fourth and final stage of life according to Hindu tradition, it is the stage of renunciation, a person in this stage is expected to detach themselves from the material world and dedicate their lives to spiritual pursuits and self-realization. This stage usually takes place in the later years of life and is characterized by the individual’s total renunciation of the world, including the abandonment of all material possessions and the pursuit of a solitary and ascetic lifestyle .

These two samskaras (Vanaprastha and Sanyasa) are not mandatory for everyone. They are taken up by those who have a calling for spiritual pursuits, especially for the renunciation stage.

F) Death Sanskar

16. antyeshti (death rites).

Anthyesthi, also known as Antyakriya or Antya-kriya, is the last of the 16 samskaras in Hindu tradition. It is the ritual of a funeral and final rites that are performed for the deceased. The rituals are performed to help the soul of the deceased to reach the afterlife and attain peace.

The rituals typically include washing and dressing the body, performing the last rites such as the lighting of the funeral pyre, and offerings of food, flowers, and other items to the deceased . The family and friends of the deceased may also perform additional ceremonies such as the Shraddha ceremony, which is performed on the anniversary of the person’s death, and the Tarpana ceremony, which is performed to honor the deceased’s ancestors.

The rituals are typically performed by a Hindu priest or a family member who is well-versed in the rituals and is assisted by other family members or friends. The rituals are usually performed at the place of death or at a cremation ground.

7pranayama

16 Samskara (Rites of Passage): Importance of 16 Hindu Samskaras

16 Samskara

The story of Indian culture and its rituals is sung all over the world. According to Indian philosophy, especially in Hindu culture or the forefathers of Hinduism, the sacramental spiritual truth was deeply recognized and deeply reviewed by life. They found that from the arrival in the uterus to the surrender in the funeral pyre, even after that there are many important turning points till liturgical respite, If the soul is not taken care of and groomed at this time, so man, far from understanding the meaning of his identity, keeps moving towards suffering and downfall. In order to be alert at these important points and to show the right path, our philosophers, mystics, had practiced the 16 Samskara. These Samskara are not considered religious rituals or ceremonies, but many important formulas of life management are hidden in them.

They are still in vogue in the form of sign-worship, but due to a lack of scientific, psychological, and spiritual understanding and training, they have become mere rituals and extravagance.

Let us know the meaning of the rites mentioned in the Hindu Vedas and about the various rites.

Meaning of Samskara

The word “samskara, the prefix “sam”, is formed by adding the suffix “Gh” to the root “kara”, which literally means sophistication, purity, or cleanness.

By the way, the exact meaning of the word “ Samskara ” is not in any language. But it can be linked to the yogic concept of karma and lust. According to Hindu Sanatan tradition, Samskaras or rituals were performed with the aim of sophistication or purifying the body of a person so that it could become suitable for personal and social development.

The purpose of Samskara in Sanatan Dharma is not only formal body rituals. The purpose of Samskara in Hinduism is the sophistication, purification, and perfection of the entire personality of the cultured individual. Sanskars have been provided for the sophistication of the materiality of life and the mentality of the individual at different stages of life.

According to Sadhguru, your karma and Vasana together form the sacrament. Because of the behavior of the past lives, you are born in a specific Samskara and move on to the present life. However, your current karma will stay with you and carry on in your next rebirth and decides how much joy or pain you experience.

Sanskar refers to those religious acts, which leave an impact on the mind and thoughts of a person.

Samskaras as per ancient texts

Maharishi Acharya Charak (C.S.V.1/2), the father of Ayurveda, says that-

sanskaro hi gunantaradhanam uchyate

That is, this effect is different. The process of removing the bad qualities of a person and imposing virtue on him is called Sanskar.

Angira Rishi (Veer Mitrodaya Sanskar Prakash-Part-1, page 139) says that-

Chitrakarma yathadenekairangaisamilyate shanaih.

brahminpi tadvastat samskarai purva kai: .

That is, just as a painting is gradually enhanced by the addition of different colors, in the same way, by performing rituals in a systematic way, one attains brahmana.

In Patanjali’s Yoga Sutra III.18

In Yoga Sutra III.18, Patanjali Yoga Sutra discusses the samskaras— your habits, patterns, and conditioning—can be a point of focus for refining the mind.

16 Samskara in Hinduism

There are 40 samskaras mentioned in Gautam Smriti Shastra . In some places, 48 samskaras have also been told. Maharishi Angira has mentioned 25 samskaras. After consensus amongst various scholars, At present Shodasha Samskaras (Shodasha means sixteen in Sanskrit) are prevalent according to Maharishi Ved Vyas Smriti Shastra, according to that-

Gardhanam Punsavan Seemanto Jatkarma Ch.

NamkriyaNishkramneऽNanashanam Vapanakriya.

Karnavedho Vratadesho Vedarambhakriya Vidhi:.

Keshantam Snanmudvaho VivahaagniParigraha:..

Tretagnisamgrahascheti Samskara : Shodash Smrita:. (Vyasmriti 1/13-15)

These are categorized into 5 sections – Pre-natal, Childhood, Educational, Marriage, and Death.

Let us have a look at each one of them.

Pre-natal Samskaras

1. Garbhadan (Conception)

In Hindu religious rituals, the conception ceremony is the first Samskara, from here the baby is formed. After entering the householder’s ashram, the couple has been given the belief to produce children, therefore it is said in the scriptures that in order to get the best children, first of all, conception has to be performed.

This Samskara is performed for the production of children only to get rid of the debt of the ancestors. By this Samskara, the defects related to seed and womb, etc., are removed, due to which good children are obtained.

Conception is the first Samskara of the soul because it is at that time that the soul first enters the womb of the mother.

To get the best child, parents have to prepare themselves physically and mentally because the coming child is the image of their own soul.

2. Pumsavana (Engendering a male issue)

When the soul enters the mother’s womb, its physical development begins. This sanskar is performed so that the physical development of the child is favorable.

Where has it been said in the scriptures that in the third month from conception, the Punsavan Sanskar is performed, according to the scriptures, there is no gender difference in the pregnancy for 4 months, so this rite is performed before the birth of the sign of a boy or a girl. In this ritual, a particular medicine is brought inside through the nostrils of the pregnant woman.

The mind and nature of the parents have a profound effect on the fetus, so this sanskar has special significance to make the mother mentally able to take good care of the fetus.

There are two main purposes of performing Punsavan rites in religious texts. The first objective is to get a son and the second is to get healthy, beautiful and talented children.

3. Simantonayana (Hair-parting)

This sanskar is performed during the seventh month of pregnancy and prayers are offered for the healthy physical and mental development of the child. Another significance of this sanskar is to free the expectant mother from worries for the last 3 months as it is a very difficult time period for the pregnant woman- both physically and mentally. Worship is performed for the purification of the atmosphere and for the peace of the mother and for giving birth to a peaceful and pious child.

The rites are primarily social and festive in nature, intended to pray for the health and well-being of the child and safe delivery of the mother.

Childhood Samskaras

4. Jatakarma (Birth rituals) 

By performing Jatkarma Sanskar as soon as the child is born, many types of defects of the child are removed. Under this, honey and ghee are given to the baby, due to which the development of the child’s intelligence is accelerated. From then on the mother starts breastfeeding the child. The science of this ritual is that mother’s milk is the best food for the child. Also Vedic mantras are recited so that the child is healthy and long.

5. Namakarana (Name-giving)

After the Jatkarma Sanskar, the fifth Samskara naming ceremony is performed in Hinduism, this rite should be done on the 11th day after the birth of the child.

Naamkaran ceremony should be performed only at the prescribed time because man has a close relationship with the name.

The advantage of naming names according to constellations or zodiac signs is that it makes it easier to make horoscopes, the name should also be kept very beautiful and meaningful, inauspicious and unsightly names should never be kept.

It is believed that due to the naming ceremony, the age is accelerated and in worldly behavior, a separate existence of a famous person by name is created. In this sacrament, the child is offered a darshan of the sun by licking honey and giving a decently sweet speech and it is wished that the child should imbibe the radiance of the sun.

6. Nishkrama (First outing)

In this, the child is taken out of the house and given a glimpse of the sun, it is believed that as soon as the child is born, he should not be exposed to sunlight, it can have a bad effect on the eyes of the child, so when the child’s eyes and body When something becomes strong, then this sanskar should be done.

That is, in the fourth month of birth, Nishkraman rites should be performed; the knowledge and karmic senses of a four-month-old child become strong and become capable of bearing sunlight, wind etc. The main process of this rite is to worship the gods like Sun and Moon and make the child have darshan of the Sun, Moon etc.

7. Annaprashana (First feeding)

This samskara is generally performed around the sixth month of the child’s life. After the Annaprashan ceremony, other food items are started to be given to the child besides mother’s milk. Medical science also says that after a time limit, the child cannot be nourished by milk alone. He also needs other substances. The purpose of this sanskar is to develop the child physically and mentally through food items.

The purpose of Annaprashan is to make the child bright, strong, and meritorious, so there is a law for the child to do annaprashan by mixing ghee-rich rice or curd, honey and ghee.

8. Chudakarma or Chaul (Shaving of head)

In Hinduism Chudakaran Sanskar is the eighth rite, after performing Annaprashan Sanskar, it is a law to perform Chudakaran Sanskar, this rite should be done in the first or third year, according to the legend of Manusmriti, the two castes should be shaved in the first or third year, such is the order of the Vedas.

The reason for this is that the hair of the head that came from the mother’s womb is impure, and secondly, they keep on falling, due to which there is no rapid growth of the baby. The crest of the baby is kept after these hairstyles are shaved.

9. Karnavedh (Piercing the earlobes)

Karnavedha sanskar means piercing the ear. There are five reasons for this, one- to wear jewellery. Second- Piercing the ear stops the bad effects of Rahu and Ketu according to astrology. Third, it is acupuncture, due to which the flow of blood in the veins going to the brain starts to improve. Fourth, it increases hearing power and prevents many diseases. Fifth, it strengthens the sexual senses.

Educational Samskaras

10. Vidyarambha (Learning the alphabet)

Through this Samskara, the attainment of the ultimate goal of learning is initiated after the person enters the momentary world. The importance of Vidyarambha Sanskar in Indian culture is more important than all other rites.

On the basis of ‘Lalayat Panchavarshani’, in the first five years, the life of the child is full of pampering and during this period his agility and instability of mind are at the peak. That is why this time was not considered ripe for the study. After five years, receptivity power develops in the child and this time is most suitable for Vidyalambh.

Vishnu, Lakshmi and Saraswati are worshiped at the time of Vidyarambh ceremony. The reason behind this is that Lakshmi is the goddess of Preyas Marg and Saraswati Shreyas Marg while Vishnu is established as the coordinator between the two. In this ritual, an elite person gets the child to do education by writing letters in the soil on the earth. Children feel pleasure in playing in the mud, so this is done to arouse their interest towards learning.

11. Upanayana (Sacred thread initiation)

Upanayana Sanskar is also called Yagyopaveet or Janeu Sanskar, every Hindu should have this rite. ‘Upa’ means pass, ‘Nayana’ means to take, means to take to the Guru, means Upanayana Sanskar.

In this sacrament, the Guru initiates the son at the age of eight with a sacred thread known as Janoi.

Even today it is a tradition that there are three threads in Janeu i.e. Yagyopaveet, it is a symbol of three gods Brahma, Vishnu, Mahesh. Through this sanskar, the child gets strength, energy and brilliance, as well as spiritual feelings are awakened in him.

12. Vedarambha (Beginning Vedic study)

After the Upanayana ceremony, one begins the study of the Vedas. It is only in Indian culture at such a young age that a person starts taking the education of esoteric knowledge. It is from this knowledge element that man creates the ability to separate himself from other living beings of the world. In this, the personality of a person is formed and that is why this Vedarambh Sanskar is considered to be the most respected sacrament.

13. Keshant (Godaan) (Shaving the beard)

Keshant means – to end the hair, that is, to shave, is shaved even before the study of learning. Before attaining education, purification is necessary so that the mind works in the right direction.

This Samskara is also called Godan Samskara. This rite is performed at the end of adolescence and the beginning of puberty.

In ancient times, Keshant Samskara was also performed when he returned after receiving education from Gurukul.

14. Samavartan (End of studentship)

Samavartan Sanskar means to return again, after receiving education from the ashram or gurukul, this sanskar was performed to bring the person back into the society.

It means preparing a celibate person psychologically for the struggles of life.

Marriage Samskara

15. Vivaha (Marriage Ceremony)

It is necessary to get married at an appropriate age. Vivaha samskara is considered to be the most important samskara. Under this, both the bride and the groom stay together and get married, taking a vow to follow the religion. Vivaha (wedding) does not only contribute to the development of the universe, but it is also necessary for the spiritual and mental development of a person.

This sanskar is the most important sacrament of life which plays an important role in building a better society.

Death Samskara

16. Antyeshti (Death rites) 

In Hindus, the process of burning the dead body in the funeral pyre in the Vedakt ritual is called antyeshti kriya or funeral rites.

This rite is performed to dedicate the body to the fire after death. Due to this being the last rites of any person, it is also called funeral. The philosophical aspect of this sanskar is that the body has to be re-merged in the same five elements from which the body is made. In this sacrament, the body that has left the soul is lit by the dearest person of that person.

Man does not fulfill any one of these 16 Samskara, he has to suffer a lot to attain salvation after death, so man should follow these sanskars as much as possible.

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  20. अच्छे संस्कार पर निबंध 10 lines (Good Manners Essay in Hindi) 100, 150

    अच्छे संस्कार पर निबंध (Good Manners Essay in Hindi) एक व्यक्ति दूसरे के प्रति कैसा व्यवहार करता है, उसे 'तरीका' कहा जा सकता है। शिष्टाचार हर किसी के जीवन में

  21. Good Manners Essay In Hindi

    Sanskar Essay in Hindi, Good Manners Essay In Hindi, Acche Sanskar Aur Shishtachar, बच्चो को अच्छे संस्कार कैसे दे, 10 अच्छे संस्कार और शिष्टाचार

  22. 16 Samskara

    The 16 samskaras, also known as the 16 sacraments or the 16 rites of passage, are a series of rituals and ceremonies that mark the various stages of a Hindu's life, from birth to death. These samskaras are believed to purify and sanctify the individual and prepare them for the next stage of human life. The rituals are typically performed by a ...

  23. 16 Samskara (Rites of Passage): Importance of 16 Hindu Samskaras

    The purpose of Samskara in Hinduism is the sophistication, purification, and perfection of the entire personality of the cultured individual. Sanskars have been provided for the sophistication of the materiality of life and the mentality of the individual at different stages of life. According to Sadhguru, your karma and Vasana together form ...